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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि
आत्मार्थी और मतार्थो की दृष्टि में अन्तर 'अप्पा सो परमप्पा' इस सिद्धान्त को पूर्ण रूप से हृदयंगम करने के लिए सर्वप्रथम दृष्टि सम्यक, स्पष्ट, शुद्ध, निष्पक्ष और सर्वागीण होनी अनिवार्य है। अगर दृष्टि निर्मल न हई तो आत्मा का परमात्मभाव पाना तो दूर, वह जडात्मा बहिरात्मा या परभावलीन आत्मा बन जाता है। दृष्टि शुद्ध और सम्यक् हो, तभी व्यक्ति आत्मार्थी कहला सकता है और वैसा आत्मार्थी ही पर. मात्मभाव को प्राप्त कर सकता है। किसी व्यक्ति की दृष्टि निर्दोष, निष्पक्ष, शुद्ध और सम्यक् न हो तो वह एकान्तरूप से किसी एक मत-पक्ष का आग्रहो एवं पक्षपाती बन जाता है । वह आत्मार्थी नहीं, मतार्थी कहलाता है । मतार्थी की दृष्टि स्वत्वमोह और कालमोह से आवृत होती है। उसकी दृष्टि अनेकान्तवादी नहीं, एकान्तवादी; मध्यस्थ नहीं, मतपक्षपाती होती है। मतार्थी जीव साम्प्रदायिक कट्टरता से युक्त तथा एकान्त एकपक्ष के खूटे से बंधा होता है । वह परमार्थ और परमात्मार्थ का अधिकारी नहीं होता, वह अहंकारार्थी, हठाग्रही और केवल
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