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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १७१ करता है, उस तरह सम्यग्ज्ञानी आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति नहीं करता, वह आत्महित की दृष्टि से उनका सम्यक् मूल्यांकन करता है। जिससे उसकी सृष्टि दुःख रूप नहीं, किन्तु आत्मिक सुखरूप हो जाती है। उसमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को पचाने, सहने और सम्यक पहलुओं से सोचने की क्षमता प्राप्त हो जाती है।
मगधराज श्रेणिक अपने कर्मों के कारण नरक में गए हैं, लेकिन क्षायिक सम्यकदृष्टि लेकर गए हैं। इस कारण वे वहाँ नरकगति के भयंकर दुःख जरूर पाते हैं, परन्तु सम्यकदृष्टि एवं सम्यकभावों से भोगते हैं। इस कारण पूर्वबद्ध पापकों को सम्यक् समझ-बूझपूर्वक भोगकर वहाँ क्षय कर देंगे, नये पापकर्म नहीं बांधेगे। फिर वे वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके इस भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर के रूप में जन्म लेंगे। आत्मा से परमात्मा बन जायेंगे। यह है-दृष्टि बदलने से सृष्टि बदलने का रहस्य !
आत्मार्थी द्वारा अनेकान्त दृष्टि से वस्तु का मूल्यांकन _आत्मार्थी अनेकान्तदृष्टि से सभी वस्तुओं का मूल्यांकन करता है। सत्य को पाने के लिए वस्तु का अनेक पहलुओं से मूल्यांकन करना आवश्यक है। केवल वस्तु का अस्तित्व जान लेने से उसके वास्तविक स्वरूप का पता नहीं लगता । वस्तु के यथार्थ वस्तुस्वरूप सर्वांगीण यथार्थ ज्ञान के लिए उसके वस्तुत्व-व्यक्तित्व का जानना आवश्यक है। अनेकान्त दृष्टि वस्तु का अनेक अपेक्षाओं-पहलुओं-दृष्टिकोणों से मूल्यांकन करती है। इसे शब्दों में वथन करने का नाम स्याद्वाद है। एक ही वस्त में अनन्त धर्म होते हैं। उन सबका एकान्त एक ही दृष्टि या अपेक्षा से कथन करने से वस्तु का यथार्थ सत्य पकड़ में नहीं आता। आत्मार्थी प्रत्येक वस्तु को विभिन्न पहलुओं, दृष्टिकोणों और अपेक्षाओं से सर्वाशतः समझ पाता है। इसीलिए अनेकान्तवाद को सापेक्षवाद भी कहते हैं।
आत्मार्थी की दृष्टि में एकान्त-एक ही पक्ष का आग्रह नहीं होता। अनेक अपेक्षाओं से वस्तु का स्वरूप समझकर उसे एक अपेक्षा से कहना-. समझना और शेष अपेक्षाओं को गौण समझना, इसका नाम नयवाद है। शुद्ध नय एक अपेक्षा से कथन करता हुआ भी दूसरी अपेक्षाओं की उपेक्षा नहीं करता।
आत्मार्थी की दृष्टि में- निश्चय और व्यवहार जैनदर्शन में मुख्यतया दो नय बताये गए हैं - व्यवहारनय और
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