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आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १५७
उनके प्रति तटस्थ ज्ञाता द्रष्टा रहने का अभ्यास भी हो जाता है । आत्मार्थी साधक पुष्ट अभ्यास हो जाने पर जीवन की छोटी-बड़ी प्रत्येक घटना को साक्षीभाव से निर्लेप होकर देखने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है । उसका देहाध्यास मन्द पड़ जाता है । फलतः संसार के बीजभूत कर्ता, भोक्ताभाव से दूर रहता है । देह से आत्मा के पृथक् अस्तित्व की प्रतीति बढ़ने से द्रष्टाभाव उत्तरोत्तर प्रगाढ़ बनता जाता है । श्रीमद्राजचन्द्र की इन पंक्तियों का मर्म आत्मार्थी स्वानुभव में रमा लेता है
कर्ता भोक्ता कर्म नो, विभाव वर्ते ज्यॉयं । वृत्ति वही निजभावमां, थयो अकर्त्ता त्यांय ॥ छूटे देहाध्यास तो नहि कर्ता तु कर्म । नहि भोक्ता तुं तेहनो, एज धर्मनो मर्म ||
आत्मार्थी जीव : उल्लसित बोर्यवान आत्मार्थी जीव अपने आत्मस्वरूप को समझने के लिए अन्तर् में तीव्र उत्सुक होता है। इसलिए वह आत्महित की बात कहीं से, और किसी से भी मिले, उल्लासपूर्वक, उत्साह और श्रद्धापूर्वक श्रवण-मनन करता है । आत्मार्थी को उल्लसित वीर्यवान् इसलिए कहा गया है कि उसके परिणाम उल्लासरूप होते हैं | अपने स्व-भाव को साधने हेतु उसका वीर्य (आत्मशक्ति) उत्साहित होता है । श्रीमद्राजचन्द्र के शब्दों में कहा जाय तो - 'उल्लासयुक्त वीर्यवान् ही परमतत्त्व की उपासना करने का प्रमुख अधिकारी है ।'
आत्मार्थी उल्लसित वीर्यवान् कैसे बनता है ? मोक्षमार्ग प्रकाशक में सम्यक्त्वप्राप्ति के लिए उद्यत आत्मार्थी जीव के उत्साहपूर्वक प्रयत्न का वर्णन करते हुए कहा है-वह जीवादि तत्त्वों को जानने के लिए किसी समय स्वयं विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है, कभी शास्त्र - प्रवचन सुनता है, कभी स्वयं शास्त्र का अध्ययन करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है, ये और इस प्रकार के अन्य माध्यमों से अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए उत्साहपूर्वक प्रवृत्त होता है । अपना कार्य करने की अत्यन्त उमंग होने से आत्मा के विषय में उठती हुई शंकाओं का अन्तरंग प्रीतिपूर्वक समाधान ढूंढ़ता है और आत्मार्थ-साधन के लिए वह तब तक उद्यम करता
१ आत्मसिद्धि गा० १२१, ११५
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