________________
आत्मार्थी ही परमात्मार्थी ! १६३
ही लक्ष्य रहता है कि मेरो आत्मा इस संसार-समुद्र में गोते खाने से या डूबने से कैसे बचे ? समुद्र में डूबते हुए जीव को कोई तैरने का उपाय बताए अथवा नौका आदि में बैठने को कहे तो वह जरा-सा भी प्रमादआलस्य नहीं करता, इसी प्रकार आत्मार्यो को कोई सत्पुरुष संसार-समुद्र तैरने या पार करने का उपाय बताए तो वह जरा-सा भी प्रमाद किये बिना झटपट उसे उल्लासपूर्वक स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार संसार-समुद्र से पार होने के अभिलाषो आत्मार्थी जीव को कोई आत्मज्ञानी संत भेदज्ञानरूपी नौका में बैठने को कहे तो भो वह उसके लिए बिल्कुल प्रमाद नहीं करता, न ही आना-कानी करता है। बल्कि अनन्त जन्म-मरणरूप संसार-सागर में डूबते हुए आत्मार्थी को जो तैरने या डूबने से बचने का उपाय बताता है, उस उपकारी सत्सुरुष का वह परम उपकार मानता है।
सहारा जैसे विशाल रन में किसी को पानी की प्यास लगी हो, उसे पानी पीकर झटपट प्यास बुझाने को धुन लगी हो, वह यदि कहीं पानी का जरा-सा स्रोत पा जाता है तो पानी-पीकर कितना तृप्त, शान्त, निराकुल हो जाता है ? इसी प्रकार संसाररूपो विशाल रन में जिसे शुद्ध आत्मा को पाने और समझने की प्यास लगो है, आत्मा की उस प्यास को शीघ्र शान्त करने की उत्कण्ठा लगी है, वह आत्मस्वरूप को सुनकर और पाकर कितना आनन्दित, तृप्त, शान्त और निराकुल हो जाता है। आत्मार्थी को ऐसी ही तीव्रता अन्तर् में लगती है और वह आत्मस्वरूप का मार्ग पा जाता है।
__ आत्मार्थी जीव की अन्तर दशा शुद्ध आत्मस्वरूप को जानने और पाने की ऐसी तीव्र उत्कण्ठा जिसमें होती है, उस आत्मार्थी की अन्तर्दशा कैसो होती है, इसके लिए श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं
कषायनी उपशान्तता, मात्र मोक्ष अभिलाष ।
भवे खेद, प्राणी-दया, त्यां आत्मार्थ-निवास ।।"1
आत्मार्थी की आन्तरिक दशा सम्यग्दर्शन के पाँच लक्षणों से परिपूर्ण होती है । वे पाँच लक्षण ये हैं-(१) शम अथवा सम, (२) संवेग,
१ आत्मसिद्धि दोहा ३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org