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आत्मार्थी ही परमात्मार्थी | १६५
अवधि पूर्ण होते ही हो जाता है । कर्मों का उदय में आने का क्रम एक क्षण भी रुकता नहीं। वे निराबाध गति से आते हा रहते हैं परन्तु साक्षी भाव से ज्ञाता-द्रष्टा बना रहने में अभ्यस्त आत्मार्थो उन्हें सिर्फ जानता-देखता रहता है, उनमें मिलता नहीं है । वह क्रोधादि का प्रसंग आने पर उत्तेजित न होने का निश्चय कर लेता है । अतः उत्तजित नहीं होता । तब उदय में आये हुए क्रोधादि स्वयं चले जाते हैं। उअशान्त कषायी होने के कारण क्रोधादि के निमित्त आत्मार्थी का सर्श नहीं कर पाते । आत्मार्थी 'शम' गुण को जीवन में रमा लेता है।
दूसरा लक्षण : सिर्फ मोक्ष को इच्छा-सामान्य मानव आज विविध आकांक्षाओं, अभिलाषाओं, एवं इच्छाओं को आग में अहर्निश सन्तप्त हो रहा है। समाजमान्य तथाकथित सांसारिक सुख में विश्वास करने वाला मनुष्य धन-सम्पत्ति, कार, कोठो, बंगला, बहुमूल्य पोशाक, प्रतिष्ठा, सम्मान, प्रसिद्धि आदि बाह्य (पर) पदार्यों में रचा-पचा रहता है, इन्हीं में उसका मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और चित अनिश रुका रहता है। सांसारिक इच्छाओं को आग इतनो प्रचण्ड होतो है कि इसमें जितना इंधन (सुख-प्राप्ति के माने हुए साधन) डालो, सब भस्म हो जाता है। सुखसाधन रूपी ईंधन ज्यों-ज्यों डालते जाओगे, त्यों-त्यों इच्छाओं की माँग उत्तरोत्तर बढ़तो जायेगो, वह कभो तृप्त नहीं होगी । इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त हैं, उनका कभी अन्त आता ही नहीं । जब तक ये सांसारिक इच्छाएँ पड़ी हैं, तब तक आत्मार्थ-परमात्माप्राप्ति या मोक्षप्राप्तिरूप अर्थ से अत्यन्त दूर है, आत्मार्थ अन्तःकरण में तब तक अंकुरित नहीं होता।
___ अतः आत्मार्थी ऐसी सांसारिक और भौतिक इच्छाओं-आकांक्षाओं को अन्तर् में से उखाड़ फेंकता है। मन में भाव तो उठेगे ही, जब तक वीतराग नहीं हो जाता है । परन्तु वह संसार-वृद्धि कारो भावों को जरा भी प्रश्रय नहीं देता, उसको एकमात्र भावना=अभिलाषा मोक्षप्राप्ति-परमात्मप्राप्ति को होती है। उसके भावों का वेग अब सांसारिक उलटो दिशा में न बहकर एकमात्र मोक्ष-परमात्मभाव की दिशा में बहने लगता है। संवेग (एकमात्र मोक्ष की अभिलाषा) हो उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता
१ 'इच्छा ह आगगससमा अणंतया ।'
-उत्तराध्ययन सूत्र
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