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१४८ | अप्पा सो परमप्पा
उन्नत मननशील मन, उत्तम वचनबल तथा ज्ञानबल प्राप्त था । किन्तु पूर्वजन्मकृत कर्मों के क्षयोपशम से, एक निर्ग्रन्थ मुनिवर के सदुपदेश से उनकी अन्तरात्मा जागी । वे संसार की मोहमाया से विरक्त हुए, विषयकषायों से उपरत होने के लिए प्रतिबुद्ध हुए और आत्मा पर छाए हुए कर्मकालुष्य को दूर करने के लिए वे बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनकर संयम के आग्नेय पथ पर चल पड़े। उनके साधनामय जीवन की कसोटी हुई, प्रलोभन, विघ्न बाधा, जनाक्रोश आदि अनेक घाटियों से वे पार हुए और तपे हुए सोने की तरह परीक्षा में खरे उतरे और एक दिन वे अन्तरात्मा से परमात्मा बन गए । वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए, अनन्तज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द से परिपूर्ण हो गये । उनके साधनाकाल की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि की प्रशंसा करते हुए स्वयं भगवान् महावीर ने कहा है
सबखं खुदीसइ तो विसेसो, न दीसइ जाइविसेस को वि । सोवागपुत्त' हरिएस साहू, जरसेरिसा इड्ढी महाणुभावा ॥1
देखो, इस श्वपाक ( चाण्डाल ) पुत्र हरिकेशबल साधु को, जिसकी ऐसी ऋद्धि, तपः तेज का महान प्रभाव है । इनमें साक्षात् तपविशेष दिख रहा है, कहीं जाति आदि की विशेषता नहीं दिखाई देती ।
यह है, देह में रहते हुए भी देहाध्यास से सर्वथा मुक्त, जीवन्मुक्तकोटि के परमात्मा का स्वरूप | देहविमुक्तकोटि के परमात्मा समस्त कर्म, काया, मोह-माया, जन्म-मरण आदि से सर्वथा मुक्त, निरंजन, निराकार, सिद्ध परमात्मा हैं । वे अशरीरी होने के कारण जन्म-मरण आदि से रहित होने से संसार से उनका नाता सर्वथा छूट जाता है । ऐसे विदेहमुक्त परमात्मा संसार में लौटकर नहीं आते । वे शरीर से सदा के लिए सर्वथा रहित होकर मोक्ष में पहुँच जाते हैं । अनन्तचतुष्टय से युक्त होकर वे सदा-सर्वदा अपने आत्मभावों में, आत्मानन्द में ही रहते हैं ।
निष्कर्ष यह है कि बहिरात्मा सांसारिक जीवन का प्रतिनिधि है, अन्तरात्मा साधकजीवन का और परमात्मा है- साध्यजीवन का प्रतिनिधि । जो मानव बहिरात्मदशा का त्यागकर अन्तरात्मा बन जाता है, वह आत्म-साधना करते-करते स्वयं पुरुषार्थं द्वारा परमात्मा बन जाता है । इसीलिए जैनधर्म का मूल स्वर है- अप्पा सो परमप्पा ।
१ उत्तराध्यय नसूत्र अ. १२, गा. ३७
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