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१५० | अप्पा सो परमप्पा
आत्मार्थोजन की पहचान
__ भनेकान्त दृष्टि से आत्महित की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु का यथायोग्य उपयोग यत्नाचार और विवेक करना ही आत्मार्थी का मुख्य प्रयोजन है। श्रीमदराजचन्द्र ने इस सम्बन्ध में आत्मार्थीजनों की पहचान कराते हुए कहा है
ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, त्यां समजवू तेह ।।
त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥८॥ अभिप्राय यह है कि आत्मार्थ-प्राप्ति की तमन्ना रखने वाले आत्मार्थी मानव की जिम्मेवारी कितनी बढ़ जाती है ? इस सत्य-तथ्य को यहाँ उजागर किया गया है। जिसके अन्तर् में आत्मोत्थान का अटल निश्चय जाग उठा है और आत्मा के सर्वतोमुखी विकास एवं शोधन के लिए जो सर्वस्व समर्पण करने को तत्पर हो गया है। उसके अन्तर में स्वतः विवेक का उदय होता है। वह समग्र जगत् के सर्व तत्त्वों की योग्यता-अयोग्यता, हानि-लाभ, साधकता-बाधकता आदि दृष्टिबिन्दुओं से आत्महित को लक्ष्य में रखकर यथायोग्य उपयोग करता है।
आत्मार्थी के अन्तर में स्वतःप्रेरित विवेक होता है। उसकी आत्मा में अन्तःप्रज्ञा होती है, जिससे वह वस्तुतत्व का निर्णय अपनी आन्तरिक सूझ-बूझ से कर लेता है।
ऐसा आत्मार्थी साधक भले ही आत्मविकास की पूर्णता परमात्मप्राप्ति तक नहीं पहुँचा हो, परन्तु वह सतत् अभ्यास दशा में प्रवृत्त रहता है। इस कारण शुद्ध आलम्बनों द्वारा आत्मिक गुणों के विकास के साधक कारणों को ग्रहण कर लेता है और बाधक कारणों का त्याग कर देता है। इसी प्रकार हित-अहित, कल्याण-अकल्याण, श्रेय और प्रेय, हेय और उपादेय, आचरणीय और अनाचरणीय, स्व और पर, स्वभाव और परभाव को निष्पक्ष और मध्यस्थ दृष्टि से पृथक्-पृथक् कर लेने का नाम ही विवेक है, जिसके लिए आत्मा रूपी राजहंस ही सुयोग्य पात्र होता है ।
___ वह जगत् के तत्त्वों को जानकर अन्तर् की ओर मुड़ता है और अपनी आत्मा को जगत् से पृथक् शुद्ध चैतन्यस्वरूप निश्चित करता है । वह परभाव के कारण आत्मा पर आये विकारों से शुद्ध आत्मतत्त्व का
१ आत्मसिद्धि, दोहा ८।
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