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१३४ ] अप्पा सो परमप्पा
कहा है
___ "इस प्रकार जिसे ज्ञात हो जाता है कि मेरी आत्मा औपपातिक (कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहणकर्ता) है। जो इन (पूर्वोक्त) दिशाओं तथा विदिशाओं में अनुसंचरण करती हुई, सभी दिशाओं एवं अनुदिशाओं से जो आई है और अनुसंचरण करती है, वही मैं हैं।"
श्रीमद् रायचन्द जी ने इसी सत्य तथ्य को अपनी भाषा में समझाते हुए कहा
"हूं कोण छु ? क्याथी थयो ? शु स्वरूप छे मारू खरु ? कोना सम्बन्धे वलगणा छ ? राखु के ए परिहरु ?"
अर्थात्-जिस प्राणी की चेतना का लक्ष्यमुखी विकास हो जाता है, उसे अपने अस्तित्व और व्यत्तित्व का बोध क्रमशः होता है कि "मैं (आत्मा) कौन है ? मैं कहाँ से आया हूँ ? यहाँ किन कारणों से उत्पन्न हुआ हैं ? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? वर्तमान में किसके साथ मेरा कैसा सम्बन्ध है ? उस सम्बन्ध को मुझे रखना है या छोड़ देना है ?" ।
ये सब जिज्ञासाएँ उसे सदर अतीत में ले जाती हैं और वह इन जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करता है। उत्कृष्ट विवेक के द्वारा वह अपने लक्ष्य (परमात्मा) के प्रति उत्सुक होता है। जिस प्राणी की चेतना का इतना विकास हो जाता है, वही आत्मा परमात्मा बनने योग्य हो सकता है। ये आत्माएँ परमात्म-पद से अतिदूर हैं।
आत्मा और परमात्मा का मूल स्वरूप और शक्ति समान होने पर भी उनकी अभिव्यक्ति में अन्तर होने से दोनों में काफी अन्तर पड़ जाता है।
संसार में अनन्त-अनन्त आत्माएँ हैं। परमात्मा और उन आत्माओं की शक्ति और स्वरूप में कोई अन्तर न होते हुए भी चेतना के विकास में तारतम्य होने से वे आत्माएँ परमात्म-पद के साक्षात्कार से दूर रहती हैं।
१ "एवमेगेसिं जं णातं भवइ-अत्थि मे आया ओववाइए। जो इमाओ दिसाओ
अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ, सव्वाओ अणु दिसाओ वा जो आगओ, अणुसंचरइ सोहं ।"
-आचारांग प्रथम श्रु. अ. १, उ. १ सू. ४
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