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आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें | ६५
अधिकांश लोग बाहर ही खोजते हैं
निष्कर्ष यह है कि आत्मा अपने भीतर ही पाया जा सकता है, बाहर नहीं । बाहर में जो दिखता है, उसे मायिक इन्द्रजाल या मृग-तृष्णा समझना चाहिए। जैसे सूर्य की ऊर्जा की उत्पत्ति तो उसके केन्द्र में होती है, बाहर तो विकिरण के वितरण की प्रक्रिया चलती रहती है । परमाणुओं और जीवाणुओं के नाभिक मध्य में होते हैं । शक्ति के स्रोत उन्हीं में होते हैं । बाहर उनका सुरक्षा दुर्गमात्र खड़ा रहता है । इसी प्रकार आत्मा, उसकी शक्ति या उसके ज्ञानादि निजीगुण तो भीतर में होते हैं, बाहर तो उसका कलेवर मात्र लिपटा हुआ है । आत्मा तो काय - कलेवर के अन्तरंग में है । बाहर तो उसके निवास, निर्वाह का भवन मात्र खड़ा है ।
बाहर में जो कुछ दिखाई देता है, उसके बीज तो भीतर विद्यमान हैं | वास्तविक समृद्धि और प्रगति के मूल तत्त्व तो भीतर हैं । सुख और शान्ति के केन्द्र अथवा ज्ञान और दर्शन स्रोत भी भीतर में हैं । तुष्टि, पुष्टि, तृप्ति, आनन्द, उल्लास, उत्साह एवं शक्ति (वीर्य) के रत्न भण्डार भी वहीं दबे हुए हैं। बाहर की मृगमरीचिका में भटकने की अपेक्षा यदि दृष्टि सम्यक् एवं स्पष्ट बना ली जाए तो भोतर में निहित अनन्तज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्ति की निधि का उपयुक्त स्थान खोजने - देखने और तृप्त होने का पुरुषार्थ सार्थक हो सकता है ।
बाहर में जड़तत्वों और पुद्गलों का विस्तार ही हाथ लगता है, जो बाहर से रमणीय और आकर्षक लगता है, मगर है वह नाशवान् क्षणभंगुर ही । इस बाह्य जगत की चकाचौंध में पड़कर मनुष्य ने अगणित जन्ममरण किये, दुर्गतियों और कुयोनियों में अगणित कष्ट उठाए और जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि के दुःख सहे । प्रायः सबका यह प्रत्यक्ष अनुभव होने पर भी बाह्य जगत् में ज्ञानादि को ढूंढने खोजने में अपनी शक्ति लगाकर मनुष्य जान-बूझकर अशान्ति और असमाधि मोल लेते हैं । अतः आत्मा को तथा आत्मिक वैभव को बाहर ढूंढ़ने और पाने की अपेक्षा अन्तर् में खोजो, देखो और पाओ । इन्द्रियों द्वारा ज्ञान दर्शन आनन्दमूर्ति आत्मा दिखाई नहीं देता, इन्द्रियों द्वारा तो बाहर के बड़े पदार्थ ही दिखाई देते हैं, जाने जाते हैं ।
बाहर का विस्तार एवं बिखराव बहुत ही व्यापक है । उसे ढूंढ-ढूंढ़ कर एकत्रित करने में अत्यधिक श्रम और समय लगाने की अपेक्षा अल्प
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