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१८ | अप्पा सो परमप्पा
द्वारा प्राप्त होने वाला बौद्धिक स्तर का ज्ञान ऐसी आमूल-चूल क्रान्ति नहीं कर पाता और जब तक व्यक्ति आत्मा का अनुभव नहीं कर लेता तब तक दृष्टि की भ्रान्ति दूर नहीं होती। आत्मानभूति से रहित व्यक्ति के मन में अनादि काल से पड़ी हई इन्द्रियों और मन के विषयों में सुख की भ्रान्ति मिटती नहीं। वह मिटती है-आत्मानुभूति से ही । आत्मानुभूति द्वारा निज के निरुपाधिक आध्यात्मिक आनन्द का आस्वाद मिलता है । उसके कारण इन्द्रिय-विषयों का उपभोग वास्तव में नीरस प्रतीत होता है । इतना ही नहीं सभी पुद्गलों का खेल भी इन्द्रजाल-सम प्रतिभासित होता है। इतना ही नहीं, आत्मानुभवी संसार के बनावों को स्वप्न के बनावों से अधिक नहीं समझता। इसीलिए वह संसार की पौद्गलिक क्रीड़ाओं में अनुरक्त नहीं होता।
आत्मानुभव से सम्पन्न को विषय-सुखों में रस नहीं श्रु त द्वारा जो स्वरूप का बोध होता है, उससे चित्त भावित होने पर कुछ अंशों में मोह की पकड़ तो ढीली हो जाती है, साथ ही विषयकषायों का आवेग भी मन्द हो जाता है, लेकिन विषयों का रस, दूसरे शब्दों में, विषयों में अनादिकाल से रही हई सुखभ्रान्ति दूर नहीं होती।
परन्तु जिसे आत्मानुभव हो जाता है, उसे आत्मा में आनन्द के सिगय किन्हीं बाह्य विषयों में सुख की बात बिल्कुल नहीं सुहाती । जैसेकोई मोदक खाने में सुख मानता है। वह दो-चार मोदक खाता है, अन्त में कह देता है, बस, अब रहने दो। अब मोदक खाने में आनन्द नहीं आता । अतः समझ लेना चाहिए कि कई मोदक खाने में बाद में जैसे सुख का अभाव महसूस हुआ, उस में पहले से ही सुख का अभाव है। मोदक के बदले किसी भी विषय को ले लीजिए, गहराई से सोचने पर निःसन्देह प्रतीत होगा कि विषयों में सुख नहीं है, अपितु आत्मस्वभाव के अनुभव में ही सच्चा सुख है।
यों तो बीमार मनुष्यों या पागलों के लिए इन्द्रिय-विषयों का त्याग करना आसान है, किन्तु वे उनका राग (आसक्ति) नहीं छोड़ सकते ।
१ न चादृष्टात्मतत्वस्य दृष्टभ्रान्तिनिवर्तते । -अध्यात्मोपनिषद् ज्ञानयोग श्लोक ४ २ आत्म ज्ञाने मगन जो, सो सब पुद्गल खेल ।
इन्द्रजालकरी लेखवे, मिले न तिहाँ मनमेल-समाधि शतक दोहा० ।
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