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आत्मानुभव : परमात्म प्राप्ति का द्वार | १०१ विकल्प एवं तर्क-वितर्क से होती है। विकल्प प्रायः अविद्याजनित होते हैं। इस कारण आत्मा की या आत्मस्वरूप की संशयरहित निर्धान्त प्रतीति बुद्धि से नहीं होती। वह होती है, आत्मानुभूति से । क्योंकि जब विकल्प और तर्क-वितर्क शान्त होकर मन एकदम निश्चल-एकाग्र होकर सिर्फ आत्मा में-आत्मध्यान में तन्मय हो जाता है, तभी आत्मानुभूति होती है। मन की इस उपशान्त (उन्मनी) अवस्था में ही आत्मा की संशयरहित, निर्धान्त दृढ़प्रतीति = अनुभूति होती है।
प्रायः शब्दशास्त्री (व्याकरणाचार्य), विद्वान्, दार्शनिक या पण्डित आत्मा की ऐसी निन्ति तथा संशयरहित दृढ़ अनुभूति नहीं कर सकते क्योंकि वे प्रायः तर्क-वितर्कों या विकल्पों के सहारे से बौद्धिक प्रतीति करते हैं। कोरे शब्दशास्त्री आत्मानुभूति नहीं कर पाते
व्याकरणशास्त्री या तर्कशास्त्री, दार्शनिक विद्वान् प्रायः शास्त्रों से या शब्दों से आत्मा के स्वरूप को जानते हैं, उसी को सत्य मान लेते हैं, अथवा वे आत्मा को अपने अन्तर में खोजने की अपेक्षा बाहर ही बाहर खोजते हैं, इस कारण उन्हें आत्मा की अथवा आत्मस्वरूप की निर्धान्त, संशयरहित प्रतीति नहीं हो पातो। केवल तर्कों या विकल्पों के सहारे आत्मा को या आत्मस्वरूप को जानने का प्रयास बहिर्मुखी है । आत्मा को या आत्मस्वरूप की संशयरहित तथा भ्रान्तिरहित प्रतीति, अथवा दृढ निश्चय या स्पष्ट पहचान अन्तर्मुखी स्वानुभूति से हो सकती है, क्योंकि अन्तर्मुखी स्वानुभव स्वल्प मनुष्यों को ही होता है। अध्यात्मयोगी श्री सहजानन्दजी ने ठीक ही कहा है
अनुभव क्या जाने व्याकरणी? कस्तूरी निज नाभि में पर, लाभ न पावे हरणी। अनुभव से भरपूर भरी पर, गन्ध न जाने वरणी ॥१॥ मणों बन्ध घृत-पान करे पण, खालीखम थी गरणी। लाखों मण अन्न मुख चावे, शक्ति न पावे दलणी ॥२॥ पीठे चन्दन पण शीतलता, पावे नहीं खर-खरणी। मणि-माणिक रत्नो उरमां पण, शोभा न पावे धरणी॥३॥ भावधर्म-स्पर्शन बिन निष्फल, तप-जप-संयम-करणी। शब्दशास्त्र सह भावधर्म जो, सहजानन्द नि.सरणी ॥४॥
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