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आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | १०७
जीवन में किसी भी प्रयत्न, साधना या शास्त्राध्ययन के बिना अकस्मात् आत्मानुभूति हो गई थी। उस समय वे केवल १८ वर्ष के थे। हाईस्कूल के अन्तिम वर्ष में वे पढ़ते थे। उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ था, उस समय किसी भी निमित्त के बिना एक दिन सहसा ऐसी असाधारण आत्मानुभूति हुई। उनकी अनुभूति की संक्षिप्त झाँकी उन्हीं के शब्दों में यहाँ प्रस्तुत है
“मदुराई से सदा के लिए प्रस्थान करने से छह सप्ताह पहले मेरे जीवन में यह महान् परिवर्तन हुआ। उस समय मैं अपने चाचाजी के मकान की पहली मंजिल पर एक कमरे में अकेला वैठा था। मुझे कभी कोई बीमारी नहीं हुई थी। उस दिन भी मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था। परन्तु सहसा मृत्यु के भय ने मुझे आ घेरा ।""मृत्यु की भीति के कारण मैं अन्तर्मुख हुआ। और मेरे अन्तःकरण में अनायास ही ये विचार स्फुटित होने लगे
___ “अब मेरी मृत्यु आ पहुँची है। परन्तु मृत्यु का अर्थ क्या ? मृत्यु किसकी ? आत्मा की या शरीर की ? मुझे लगा कि यह शरीर अब नहीं रहेगा । और मैं सहसा मृत्यु का अभिनय करने लगा। मैं अपने अंगोपांगा को स्थिर रखकर भूमि पर लेट गया। मैंने अपने श्वास को रोक लिया। ओठ कसकर बन्द कर लिये। ताकि किसी प्रकार की आवाज न निकले । मैंने अपने शव का अनुसरण किया, जिससे मैं इस शोध के अन्तःस्तल तक पहुँच सकूँ। फिर मैंने अपने आपको कहना शुरू किया"मेरा यह शरीर मुर्दा है । लोग इसे अर्थी पर उठाकर मरघट में ले जाएँगे और फूंक देंगे । तब यह राख हो जाएगा। किन्तु क्या इस शरीर की मृत्यु से मेरी (आत्मा की) मृत्यु हो जाएगी? क्या मैं शरीर हूँ ? मेरा शरीर मौन और जड़ होकर पड़ा है, पर मैं अपने व्यक्तित्व का पूर्ण रूप से अनुभव कर रहा हूँ और अपने अन्दर उठने वाली 'मैं' की आवाज को भी सुन रहा हूँ। अतः मैं शरीर से पर आत्मा हूँ। मृत्यु शरीर की होती है, परन्तु आत्मा को मृत्यु स्पर्श भी नहीं कर सकती । अर्थात- 'मैं अमर आत्मा हैं।" यह कोई शुष्क (दार्शनिकों की) विचारधारा नहीं थी। जीते-जागते सत्य की तरह ये विचार विद्युतवत् अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक मेरे चित्त में कौंध गए । किसी विचार के बिना मुझे सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन हो गया । वास्तव में अहं की ही सत्ता थी। शरीर से सम्बद्ध सारी हलचल इस 'अहं' पर ही केन्द्रित थी। मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो चुका था। इसके पश्चात् आत्मकेन्द्रित ध्यान अविच्छिन्न रूप से चालू रहा।"
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