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परमात्मा बनने का दायित्व : आत्मा पर | १२७
वह बच न सका। पिता के साथ वह व्यवसाय में हाथ बंटाता था। किन्तु उसके मर जाने से पिता बहुत दुःखी हो गया। अपने दुःख का कारण वह मृत पुत्र को मानने लगा। वह कहने लगा--"पुत्र मर गया, हमें दुःखी कर गया। क्या यही समय था उसके मरने का ? अभी तो एक साल ही हआ था, उसके विवाह को। उस ने व्यावसायिक क्षेत्र में काफी उन्नति कर ली थी। अभी तो वह युवक था। हमारी आशाओं और मनोरथों पर पानी फिरा दिया उसने !" पिता रो रहा है। माता भी फफक-फफक कर रुदन
और विलाप कर रही है । तत्वज्ञ लोग उन्हें समझाते हैं-वह तुम्हारा पुत्र न होता और मर जाता तो क्या तुम्हें दुःख होता ? वह कहता है-फिर मैं क्यों दुःखी होता? दुनिया में कितने ही लोगों के पुत्र मरते हैं। अगर मैं हर एक के पुत्र के वियोग में दुःखी होने लगू तो फिर मुझे सुखी होने का अवसर ही नहीं मिलेगा। प्रतिदिन किसी न किसी का पुत्र तो मरता ही है जगत् में।
यही जैन दर्शन कहता है-पुत्र के प्रति पिता को ममत्व- 'यह मेरा है' के कारण दुःख हो रहा था। वह किसी दूसरे व्यक्ति का पुत्र होता और मर जाता तो उस पिता को कोई भी दुःख न होता। यह पुत्र 'मेरा था' इस 'मेरे' में से दुःख आ रहा है। उस पिता का यह ख्याल भी गलत था कि मेरा पूत्र मेरे सुख का आधार था । वास्तव में, देखा जाए तो पुत्र पिता के लिए न तो सुख का आधार था, और न ही मरने के बाद वह उसके दुःख का कारण बना। सुख और दुःख का मूल आधार कोई दूसरा व्यक्ति या कोई भी सांसारिक पदार्थ नहीं होता, न ही किसी दूसरे व्यक्ति या सांसारिक पदार्थ का वियोग ही दुःख का कारण है। किसी सजीव या निर्जीव पदार्थ को सुख या दुःख का कारण मानना व्यक्ति के मन की कल्पना या वासना है । मन, राग या द्वष, मोह या घृणा से रंगा हआ होता है, तब व्यक्ति राग या मोहवश अनुकूल या मनोज्ञ वस्तु या व्यक्ति को सुख का कारण मान लेता है, इष्ट वस्तु के वियोग को दुःख का कारण मान लेता है। परन्तु वास्तव में सुख-दुःख का आधार तो स्वयं की ही आत्मा है । सुख या दुःख के बीज जिसने बोये हैं, उसे सुख या दुःख स्वकृत कर्म फल के रूप में मिलते हैं। दूसरा कोई सजीव या निर्जीव पदार्थ निमित्त भले ही बन जाए, वह उत्तरदायी नहीं है, सुख या दुख देने के लिए मनुष्य की आत्मा ही सुख-दुःख के लिए स्वयं हो जिम्मेवार है। श्रमण भगवान महावीर से जब पूछा गया
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