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परमात्मा बनने का दायित्व : आत्मा पर | १२३
जो वस्तु अनुकूल है, प्रिय है, वही दूसरे के लिए प्रियकर एवं अनुकूल है । जो दूसरे के लिए अप्रीतिकर है, वह तुम्हें भी अप्रीतिकर है। 'ऐगे आया" सूत्र से तीर्थंकर महावीर ने यह रहस्य प्रकट कर दिया है कि सभी प्राणियों में एक समान आत्मा है, सबमें एक ही सरीखा चैतन्य विलसित हो रहा है । यही बात नीतिकारों ने कही है
'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । 2
बातें अपने अपनी आत्मा के ) प्रतिकूल हैं, उन्हें दूसरों के लिए भी न करो ।
निष्कर्ष यह है, कि तुम अपनी आत्मा का इस प्रकार से हित या कल्याण साधो, जिससे दूसरे भी तुम्हारा अनुकरण करें, या तुमसे प्रेरणा लें तो भी उनका अहित या अकल्याण न हो । आत्मार्थी साधक दूसरों का हित या कल्याण स्वयं नहीं करता, उसकी आत्म-साधना इतनी विकसित या उन्नत हो जाती है कि जिज्ञासु, आत्मार्थी, या मुमुक्षु स्वयमेव उससे प्रेरणा लेने लगते हैं, उसे अपना हितैषी, नाथ या तारक मानने लगते हैं । जिनको अपनी सुषुप्त आत्मा जगानी होती है, वे स्वयमेव उस महान् आत्मा के विचार, वाणी और वर्तन से अपनी आत्मा को जगा लेते हैं । उनके ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं, जन्म-जन्मान्तर से भटके हुए लोग उनके निमित्त से सन्मार्ग पा जाते हैं ।
तात्पर्य यह है कि भ० महावीर या अन्य तीर्थंकर अथवा उनके अनुगामी श्रमण साधक अपने आत्मार्थ को पूरी गहनता से साध लेते हैं, कि उनके उस आत्मार्थ से सबका परम स्वार्थ सध जाता है । उन्हें अलग से परहित या परकल्याण साधने की चेष्टा नहीं करनी पड़ती । जहाँ वे विचरण करते हैं, वहाँ अनायास ही आनन्द और उत्साह की लहरें उछल पड़ती हैं । जहाँ वे विराजते हैं, वहाँ भी जिज्ञासु और मुमुक्षु जनता के मन मयूर आनन्द से उसी प्रकार खिल उठते हैं, जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही सूर्यविकासी फूल या कमल खिल उठते हैं । जो स्वयं सम्यग्ज्ञान, सम्यग् - दर्शन एवं सम्यक्चारित्र को उपलब्ध कर लेता है, अथवा जो स्वयं आनन्द से परिपूर्ण है, वही दूसरों को आनन्दित करने का आधार बन सकता है !
१ स्थानांग सूत्र स्थान १, उ० १ सूत्र १ ।
२ पंचतन्त्र, मित्र लाभ |
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