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आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | ११३
में होने वाले अनिवार्य परिवर्तन से आत्म अनुभवी व्यक्ति अधिक चिन्तित व्यथित नहीं होता; तथा बाह्य न्यूनताओं (कमियों या खामियों) से वह दीनता-हीनता का अनुभव भी नहीं करता; क्योंकि उसे 'पर' से निरपेक्ष अपने आन्तरिक आत्मिक वैभव की अनन्तज्ञानादि-चतुष्टयनिधि की प्रतीति होती है। देह और व्यक्तित्व की पर्त की ओट में रहे हए अपने अविनाशी, अलौकिक ज्ञानमय आनन्दस्वरूप की प्रत्यक्ष अनुभूति के फलस्वरूप उसका जीवन स्वस्थता, शान्ति, प्रसन्नता और निश्चितता से परिपूर्ण बना रहता है । आत्म के निरतिशय, निरुपाधिक स्वाधीन आनन्द का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होने से विषयों में तथा देह, गेह, परिवार धनादि में सुख की भ्रान्ति मिट जाती है । स्वरूप में स्थिर होने का अदम्य आकर्षण जाग्रत हो जाता है। उसकी प्रज्ञा आत्मा में, आत्म-भावों में स्थिर होती है । आत्मानुभव के रस में मस्त होने से आत्मानुभवी के मन-मस्तिष्क में रोग, शोक, चिन्ता, उपाधि, लोकापवाद आदि सब स्वतः ही नहीं रहते। योगीश्वर आनन्दघनजी आत्मानुभव की मस्ती में कहते हैं
"अवधू अनुभव-कलिक! जागी।
मति मेरी आतम समरन लागी॥ अनुभव-रस में रोग न शोका, लोकापवाद सब मेटा। केवल अचल अनादि शिवशंकर भेटा ॥ अवध० ॥१॥ वर्षाबूद समुद्रे समानी, खबर न पावे कोई । 'आनन्दघन' व्हे ज्योति समावे, अलख कहावे सोई ॥ अवधू० ॥२॥
सम्यग्दर्शन का मूलाधार : आत्मानुभव सम्यग्दर्शन का मूलाधार देह और आत्मा की पृथक्ता की प्रतीति कराने वाला आत्मानुभव है । इसे स्पष्ट शब्दों में कहें तो सम्यग्दर्शन का 'समग्र सृष्टि-आत्मा है' सिर्फ ऐसी श्रद्धा पर अथवा देह और कर्म आदि से भिन्न एक स्वतन्त्र आत्मद्रव्य का अस्तित्व है, ऐसी केवल बौद्धिक समझ पर आधारित नहीं है, अपितु दोनों की भिन्नता की स्वानुभूतिजन्य प्रतीति पर आधारित है।
__वस्तुतः कारी श्रद्धा और बौद्धिक प्रतीति - ये दोनों सम्यग्दर्शन के लिए पर्याप्त नहीं हैं । इन दोनों के पश्चात् आत्मानुभूति होनी चाहिए। शरीर और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति होने पर ही सच्चे अर्थ में
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