________________
११४ | अप्पा सो परमप्पा
सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ समझना चाहिए। इसलिए सम्यग्दर्शन का मुल आधार आत्मानुभूति है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि काया से 'मैं' (आत्मा) को पृथक् अनुभव करने वाली दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है । अर्थात्-स्व-आत्मा और पर-शरीर के भेद का साक्षात्कार करने वाली दृष्टि । आप्तवचन (आगम) पर विश्वास से और तर्क द्वारा प्राप्त स्व (आत्मा) और 'पर' के भेद का ज्ञान चाहे जितना गहरा हो, तो भी वह बौद्धिक स्तर का होने से इन दोनों के भेद की दृढ़ प्रतीति उत्पन्न नहीं कर सकता, जिससे कि निविड़ राग-द्वेष की ग्रन्थिभेद हो जाए। इसलिए स्व
और पर की भिन्नता = पृथकता का साक्षात्कार कराने वाले अनुभव को ही सम्यग्दर्शन में प्रथम स्थान दिया गया है । अनुभवहीन और अनुभवयुक्त दृष्टि में अन्तर
आत्मानुभवहीन व्यक्ति सदैव शरीर और अपने कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ अपना तादात्म्य = ऐक्य समझते हैं, जबकि स्वानुभति के पश्चात भेदविज्ञान जागृत रहता है, उस व्यक्ति को यह प्रतीति रहा करती है कि मैं शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तु नहीं हूँ। खाते-पीते, चलते-फिरते यानी प्रत्येक क्रिया करते समय आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि आत्मा की वृत्ति स्व-स्वरूप की ओर बहती रहती है । अनेक व्यस्तताओं और प्रवृत्तियों के कोलाहलों के बीच भी शाश्वत आत्मा के साथ तादात्म्य की स्मृति उसके मानस पर झलका करती है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि को तो यह भान सतत एक सरीखा रहता है। स्वानुभूति की प्रतीति को पहचान
सम्यग्दृष्टि स्वानुभूति-सम्पन्न आत्मा समग्र भवचेष्टा को नाटक के खेल की तरह अलिप्त भाव से देखता है, क्योंकि उसे स्व-रूप की स्वानुभूतिजन्य यथार्थ प्रतीति हो जाती है। वह समझता है मेरा वर्तमान व्यक्तित्व तो संसाररूपी नाटक के स्टेज (रंगमंच) पर मेरा कर्मोपाधिजन्य अभिनय मात्र है । स्टेज पर मैं अनेक पर शासन कर्ता राजा होऊँ या दीनतापूर्वक भीख मांगने वाला भिखारी होऊँ, मालिक होऊँ या नौकर, तत्त्ववेत्ता होऊँ या मन्दमति मुर्ख, यह सब क्षण-भर का प्रदर्शन है। नाटक में काम करने वाला नट जिस प्रकार मार्गदर्शक की सूचनानुसार विविध पार्ट अदा करता है, उसी प्रकार मुझे भी इस संसारनाटक में कर्मपरवश होकर कर्म द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org