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११२ | अप्पा सो परमप्पा
आत्मा से परमात्मा का अन्तिम लक्ष्य इनके अन्तर् में स्पष्ट रूप से अंकित हो जाता है। उनकी दृष्टि पल्लवग्राही प्रवाहपाती या आपातरमणीय न बन कर दृढ़ आत्मतत्त्वग्राही बन जाती है। वह बाह्य आडम्बरों, प्रदर्शनों और धुआधार प्रचारों या लच्छेदार भाषणों से बहक नहीं जाती, न ही वह लकीर की फकीर बन कर भेड़ियाधसान बनती है । वह धर्म, नीति, राष्ट्रभक्ति, जीवन स्तर, संस्कृति, सभ्यता आदि किसी भी जीवन-क्षेत्र की प्रचलित मान्यताओं और प्रवाहों को अपनी विवेक बुद्धि, स्वतंत्र आत्महित एवं आत्मसाधक दृष्टि की कसौटी पर कसता है। शास्त्र वचनों का हार्द भी वह शीघ्र ही ग्रहण कर सकता है । व्यर्थ के वाद-विवाद में वह नहीं पड़ता ! आत्मानुभवहीन व्यक्ति जहाँ साम्प्रदायिक एवं अन्धविश्वास के पुट से युक्त दृष्टि से वस्तु तत्त्व को मानकर उग्र चर्चाओं में ग्रस्त एवं व्यस्त हो जाते हैं, वहाँ अनुभवी आत्मा शान्त एवं सच्चिदानन्द स्वभाव में मस्त रहते हैं।
अनुभव से पूर्व और पश्चात् की स्थिति और दृष्टि एक बात निश्चित है कि जिसे आत्मान भव प्राप्त हो जाता है, उसकी अनुभव से पूर्व की और पीछे की मानसिक स्थिति में अन्तर पड़ जाता है। जिस प्रकार निद्रा से जाग जाने वाले व्यक्ति को यह ज्ञान-भान हो जाता है, कि स्वप्न की सारी सृष्टि सिर्फ मानसिक कल्पना-भ्रमणा थी। यह स्पष्ट भान होते ही स्वप्न की घटना का इसके समक्ष कोई महत्त्व नहीं रहता, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञानानन्दमय शाश्वतस्वरूप की स्वानुभव सिद्ध प्रतीति होते ही भव-भ्रमणा मिट जाती है और बाह्य जगत् सपनों का खेल सा निःसार मालूम होने लगता है। कारण यह है कि अनुभव-प्राप्ति से पूर्व की दृष्टि और बाद की दृष्टि में रात-दिन का अन्तर पड़ जाता है । इस अपेक्षा से पहले की दृष्टि अनुभव की भूमिका से मिथ्या प्रतीत होती है । अनभव प्राप्त होते ही आत्मा के शाश्वत अस्तित्व की तथा ज्ञानानन्दमय स्वरूप की ऐसी दृढ प्रतीति हो जाती है कि मृत्यू का भय उस व्यक्ति को जरा भी स्पर्श नहीं कर पाता । अनुभव के पश्चात उसे यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि वह स्वयं सुरक्षित है, अविनाशी है।
"देह विनाशी मैं अविनाशी अजर-अमर पद मेरा"
यह सिद्धान्त उसके रोम-रोम में रम जाता है । पुद्गलकृत (जड़ पदार्थों द्वारा जनित) अवस्थाओं, कर्मकृत-बाह्य परिस्थितियों और संयोगों
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