________________
आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | १०६
स्थिर और एकाग्र होता है, तब भी शान्ति और आनन्द की अनुभूति हो सकती है। परन्तु इस स्वानुभूति में ध्याता और ध्येय एकाकार हो जाते हैं, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों में भेद नहीं रहता। फलतः परमात्मतत्व के साथ ऐक्य = तादाम्य का अनुभव होता है । अनुभव का आनन्द वचनातीत होता है।
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में आत्मानुभूति की झांकी देखिये--
___ ''इस दर्शन-साक्षात्कार के साथ निरवधि आनन्द आता है । जहाँ बुद्धि पहुँच नहीं सकती, ऐसा (आत्म-) ज्ञान प्राप्त होता है । स्व-जीवन की अपेक्षा भी तीव्रतर संवेदन तथा अपार शान्ति और संवाद का अनुभव होता है । इस शाश्वत तेज की स्मृति का स्थायी प्रभाव रह जाता है और व्यक्ति का मन ऐसे अनुभव को पुनः प्राप्त करने के लिए उत्कण्ठित होता है।"
शब्दों (शास्त्रों या ग्रन्थों) के द्वारा जिस अनुभव के विषय में हम जान सकते हैं, वह तो हमारे मन द्वारा खींचा हआ चित्र है। यथार्थ आत्मानुभव के समय तो ज्ञाता और ज्ञेय का भेद करने वाला मन सो जाता है और आत्मा ही ज्ञय के साथ तदाकार हो जाता है। बाद में जब मन जागृत होता है, तब अनुभव में जो कुछ बना, उसका उल्लेख करने के प्रयास में शायद ही सफल होता है।
वस्तुतः जिन-जिन लोगों ने इस दशा का अनुभव किया है, वे कहते हैं कि हमने जो अनुभव किया है, उसे हूिबहू वाणी द्वारा अभिव्यक्त करने में हम असमर्थ हैं। अनुभव की अवस्था को बताने का प्रयास करने में अनुभवियों के सामने यही समस्या है। जन्मान्ध को वाणी द्वारा रंगों का भेद कैसे समझाया जा सकता है ? या जिसने कभी घी या मक्खन को चखा ही नहीं, उसे घी या मक्खन का स्वाद बताने के लिए क्या कहा जाए ? इसी प्रकार जो स्थिति वाणी से परे है, वह वाणी द्वारा कैसे व्यक्त की जा सकती है ? इस दृष्टि से इस अपरोक्ष-अनुभव को पूर्णतया समझने के लिए उसका स्वयं अनुभव ही प्राप्त करना चाहिए । शब्द तो केवल उसका संकेत ही कर सकते हैं, अथवा साधारण रेखाचित्र ही अंकित कर सकते हैं । जिस प्रकार द्वितीया के चन्द्रमा को वृक्ष की शाखा की ओट में अँगुलि से बताया जाता है, इसी प्रकार शब्दों द्वारा इशारा करके आत्मानुभूति का महत्व बताया जाता है, वह श्रोताओं की दृष्टि को आत्मानुभूति की
१ धर्मोनु मिलन- डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् पृ. २६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org