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१०० | अप्पा सो परमप्पा
इसी तथ्य को कविवर बनारसीदासजी ने समयसार नाटक में इस प्रकार व्यक्त किया है।
"कहे सुगुरु जो समकिती, परम उदासी होई ।
सुथिर चित्त अनुभौ करे, प्रभुपद परसै सोई ।" । सद्गुरु कहते हैं कि जो सम्यग्दृष्टि आत्मा, संसारभाव से अत्यन्त उदासीन होकर मन को अत्यन्त स्थिर करके आत्मानुभव करता है, वही परमात्मपद का स्पर्श करता है।
__ क्योंकि ऐसी स्थिति में आत्मा को शाश्वत, अलौकिक आनन्दमयी अनुभूति से मोहान्धकार दूर होते ही ध्याता को तत्काल आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो जाता है ।1 इस अपूर्व घटना को ही शास्त्रीय परिभाषा में आत्मज्ञान या आत्मानुभव की संज्ञा दी गई है।
अनुभव : जीवन्मुक्ति का अरूणोदय सूर्योदय से पूर्व जैसे अरुणोदय आकर रात्रि के अन्धकार को हटा देता है, वैसे ही केवलज्ञान का सूर्य प्रकाशित हो, उससे पूर्व आत्मानुभव रूपी अरुणोदय आकर मोहान्धकार को उलीच डालता है। जैसे प्रभातकाल में बाल सूर्य का प्रकाश आकर समग्र रात्रि की गाढ़ी निद्रा या स्वप्न माला का एक क्षण में अन्त ला देता है, वैसे ही अनुभवरूपी अरुणोदय आकर देह और कर्मकृत व्यक्तित्व के साथ मानव के अनादिकालीन तादाम्य तिमिर को एक क्षण में चीर डालता है।
यह शरीर और इसमें रहने वाला 'मैं' (आत्मा) दोनों एक ही आत्मप्रदेश के निवासी होने से सामान्यतया एकरूप प्रतिभासित होते हैं, किन्तु ये दोनों एक नहीं, सर्वथा भिन्न हैं। अनुभव के प्रकाश में यह तथ्य सिर्फ बौद्धिक समझ न रहकर, जीवित सत्य बन जाता है। पहने हुए वस्त्र, अपने शरीर से पृथक हैं, यह भान प्रत्येक मानव को जितना स्पष्ट होता है, उससे भी अधिक स्पष्ट शरीर और आत्मा की पृथक्ता का भान आत्मानुभव-सम्पन्न व्यक्ति को होता है !
बौद्धिक प्रतीति और आत्मानुभूति में अन्तर आत्मा की, अथवा आत्मा के यथार्थ स्वरूप की बौद्धिक प्रतीति
१ आतम-अनुभव-तीर से, मिटे मोह-अंधार ।
आपरूप में जलहले, नहि तस अन्त-अपार ।। Jain Education International
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