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६२ ! अप्पा सो परमप्पा
है, चारित्रगुण भी परमात्मलक्ष्यी हो जाता है, मोह-माया, अज्ञान, अन्धविश्वास और प्रशंसा तथा प्रसिद्धि के घेरे से वह दूर रहकर आत्मा के यथार्थ विकास में लग सकता है। आत्मज्ञान का अभाव : आत्मा से परमात्मा बनने में सबसे बड़ी रुकावट
आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वभाव, गुण और स्वरूप एक समान है, यह जान लेने पर ही आत्मा परमात्मपद की ओर बढ़ सकता है। जब तक अपने आपको ठीक से यथार्थ रूप से नहीं पहचाना जाता, तब तक कितनी ही तप, जप, ध्यान, मौन आदि की साधनाएँ की जाएँ, वे व्यर्थ हो जाती हैं । वे साधन केवल तन-मन के ही एक प्रकार के व्यायाम हो जाते हैं । गुजरात के प्रसिद्ध भक्त नरसी मेहता ने अपनी अनुभव-पुनीत वाणी में कहा
ज्यां लगी आत्मतत्त्व चिन्यो नहीं,
त्यां लगी साधना सर्व झठी। जहाँ तक व्यक्ति आत्मतत्त्व को नहीं पहचान लेता, वहाँ तक उसकी सभी साधनाएँ मिथ्या हो जाती हैं, क्योंकि आत्मा को जाने बिना जो व्यक्ति किसी प्रकार की साधना करता है, वह अज्ञान और अन्धविश्वास के गड्ढे में गिरकर गतानुगतिक हो जाता है। उसकी साधना आत्मलक्ष्यी या मोक्षलक्ष्यी नहीं हो पाती है। उस साधना से स्वर्गादि ही भले ही मिल जाएं, जो संसारवृद्धि के ही कारण हैं। कर्मों का क्षय होने पर ही जन्म-मरणरूप संसार-परिभ्रमण से छुटकारा हो सकता है। और कर्मों के क्षय की साधना तभी हो सकती है, जब व्यक्ति आत्मा और कर्मों के भेद को समझे । आत्मा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? कर्म क्या हैं, वे आत्मा के साथ कैसे लग जाते हैं ? इत्यादि बातों को यथार्थरूप से जानने पर ही व्यक्ति आत्मा से परमात्मतत्त्व की ओर कदम बढ़ा सकता है ।
__ आत्मा को जाने बिना ये साधनाएँ किसलिए? अगर कोई व्यक्ति घो 1प, जप, संयम, त्याग, उग्र क्रियाकाण्ड करता है, उससे पूछा जाए कि ये सब अनुष्ठान किसलिए किये जा रहे हैं तो प्रायः सभी धर्म-सम्प्रदाय या मत-पंथ वाले एक स्वर से कहेंगे- मोक्षप्राप्ति का परमात्मप्राप्ति के लिए हैं। परन्तु मोक्ष या परमात्मभाव की प्राप्ति क्या शरीर इन्द्रियाँ या मन-बुद्धि के लिए है ? नहीं, वह तो आत्मा के लिए है। तब तो आत्मा को सर्वप्रथम जाने-समझे और पहचाने बिना परमात्मभाव, या मोक्ष की प्राप्ति कथमपि संभव नहीं है । अपने आप (आत्मा) के
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