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अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ६१
जैनदर्शन के उद्भट विद्वान उपाध्याय यशोविजय जी ने भी स्पष्ट कहा है
कष्ट करो, संजम धरो, गालो निज देह ।
ज्ञान दशा विण जीव ने नहिं दुःखनो छेह ।।1 निष्कर्ष यह है कि आत्मज्ञान के बिना चाहे जितने व्रत, महाव्रत, नियमादि तथा कठोर क्रियाकाण्डों का पालन कर लें, भयंकर कष्ट सह लें फिर भी उसके जन्ममरण के दुःखों का अन्त नहीं आ सकता, मुक्ति उससे दूरातिदूर ही रहती है।
कमठ का पंचाग्नि तप संसारवर्द्धक बना जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान पर घोर उपसर्ग (कष्ट वष्टि) करने वाला कमठ तापस उस युग में लोक पूज्य एवं चमत्कारी माना जाता था। वह पंचाग्नि तप करता था । वैशाख मास की आग बरसाने वाली तपतपाती दुपहरी में नगर के बाहर खुले मैदान में अपने चारों ओर आग जलाकर तथा ऊपर से सूर्य का ताप सेवन करके स्वयं बीच में बैठकर पंचाग्नि तप करता था। शरीर को कितना भयंकर कष्ट देता था। परन्तु आत्मतत्व से बिलकूल अनभिज्ञ था। इसलिए ये सारे कठोर क्रियाकाण्ड उसके लिए मुक्तिदायक नहीं बने, किन्तु संसार के जन्ममरण का चक्र बढ़ाने वाले ही सिद्ध हुए।
__ स्वरूप से अनभिज्ञ व्यक्ति को
रत्नत्रयी आराधना परमात्मभाव प्रापक नहीं इसलिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की बाह्य दृष्टि से आराधना करने पर भी जब तक व्यक्ति अपने आप (आत्मस्वरूप) से अनभिज्ञ रहता है, तब तक वह परमात्म पद या मोक्ष के निकट पहुँच नहीं सकता । बल्कि आत्मतत्व को अपने आपको जाने पहचाने बिना अन्धाधुन्ध धर्मक्रिया या जप-दानादि प्रवत्ति करते रहने पर व्यक्ति को अहंकार आ घेरता है। वह अपने आपको दूसरे व्यक्तियों से भिन्न, विशिष्ट और अधिक योग्यता वाला समझ बैठता है। अपने (आत्मा के) वास्तविक स्वरूप को जानना एक बात है और किसी बात का अहंकार करना और बात है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जान लेने पर तो व्यक्ति परमात्मपद की ओर गति-प्रगति कर सकता है, उसका ज्ञान और दर्शन सम्यक हो जाता
१. सवासो गाथानु स्तवन ढाल ३ गाथा २७
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