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अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ८६
जन्माता या मारता नहीं है, वह स्वयं ही आत्मभान भूलकर कषाय, रागद्वष. कर्म आदि विभावों में फंसकर जन्म-मरण करता है। संगति का कारण भी स्वयं है, दुर्गति का कारण भी खुद है । दूसरे तो जन्म-मरण में निमित्त बन जाते हैं। अगर व्यक्ति जन्म-मरण के कारणों को जानकर आत्मस्वभाव का विज्ञ बनकर इनसे बचना चाहे तो बच सकता है।
सर्पादि से भय : जन्म-मरणादि का भय नहीं अविवेकी मानव सर्प को देखते ही कितने भयभीत हो जाते हैं; क्योंकि उन्हें अपने शरीर पर ममत्व और आसक्ति है। ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि सर्प के काटने से होने वाले दुःख का तो तुम्हें इतना भय है, किन्तु अनेक सों के काटने के दुःख के समान अनन्त जन्म-मरणादि का भय क्यों नहीं है ? अपने आप (आत्मा) को जाने-पहचाने बिना जो अनन्तजन्म-मरणादि का दुःख सामने सिर ताने खड़ा है उसका भय क्यों नहीं ? आत्मा के ज्ञान-भान के बिना एक जन्म पूरा होते ही दूसरा जन्म तैयार है। और जिसके मन में इस प्रकार बार-बार सतत् भवभ्रमण का भय नहीं है, उसे आत्मा को जानने समझने की रुचि नहीं होती। 'भय बिना प्रीति नहीं' यह कहावत अपने से अनजान अविवेकी लोगों पर पूरी घटित होती है। जन्म-मरणरूप संसार परिभ्रमण के भय के बिना आत्मा के प्रति प्रीति नहीं होती। आत्मा को यथार्थ रूप से जाने-समझे बिना जन्म-मरण रुक नहीं सकता।
आत्म-स्वभाव से अनभिज्ञ प्रतिक्षण भावमरण करता है इतना ही नहीं, जो आत्मा (अपने आप) को भलीभाँति जानतासमझता नहीं है, वह आत्मस्वभाव के विपरीत आचरण, चिन्तन, मनन, प्ररूपण करके अपने आत्म-स्वभाव का हनन करता है । वह आत्मभावों की हत्या ही एक प्रकार से भावमरण है, जिसे विवेक मूढ़ मानव राग-द्वेष, काम-क्रोधादि क्षणिक विकारों-विभावों को अपने मानकर आत्मदेव का अनादर करता है, विभावों और परभावों के प्रति रागद्वेष के प्रवाह में बह जाता है, यही तो भावमरण है, जिसे आत्मस्वभाव से अनभिज्ञ जीव प्रतिक्षण करता रहता है। इसीलिए श्रीमद्रायचन्द्र ने चेतावनी देते हुए कहा है
"क्षण-क्षण भयंकर भावमरण का अहो ! राची रहो !"1 ऐसे भावमरण से व्यक्ति तभी बच सकता है, जब वह आत्मा के
१ अमूल्य तत्व विचार
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