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८८ | अप्पा सो परमप्पा
अपने आपको न पहचानने से क्या हानि ?
कई अविवेकी लोग यह कह देते हैं कि अपने आप (आत्मा) को जाननेपरखने की क्या आवश्यकता है ? वह (आत्मा) तो हमारे पास है ही। उसे न जाने-परखें तो क्या हानि है ? यहाँ सुख से जीवन यापन कर रहे हैं। मनुष्यजन्म में प्राप्त सुख-भोगों में मस्त हैं। सभी प्रकार की सुख-सामग्री उपलब्ध है, फिर आत्मा को न जानने से इन सूखों में कोई भी विघ्न-बाधा तो उपस्थित होती नहीं और इसे जानने से कोई अधिक सख प्राप्त हो जाता हो, वैसा भी नहीं प्रतीत होता। तब फिर क्यों अपना समय खोएँ इस आत्मा (स्वयं) को जानने-पहचानने में ?
इस पर दीर्घदृष्टि से विचार करें तो इस तथ्य की सत्यता मालूम हो जाएगी कि आत्मा को जानने-समझने पर सभी ऋषि-महर्षियों, महापुरुषों और धर्मशास्त्रों ने क्यों जोर दिया है।
आत्मा को नहीं जानने-समझने वाला व्यक्ति प्रायः विषय-भोगों तथा काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ममत्व आदि विभावों तथा राग-द्वषवर्द्धक हिंसा, झूठ, कपट, दम्भ, ठगी, बेईमानी, व्यभिचार, अनाचार, आदि परभावों में फंसकर अधिकतर पापकर्म का बन्धन कर लेता है। उसके फलस्वरूप अपने आत्मस्वभाव को भूलकर अनन्तकाल तक चौरासी लाख जीवयोनि में जन्म ग्रहण करके संसार-परिभ्रमण करता रहता है। यह मनुष्य शरीर तो नया है, वह भी एक दिन श्मशान में जलाकर भस्म कर दिया जाएगा। जब तक आत्मा का ज्ञान-भान नहीं करेगा, तब तक उसे विविध योनियों में अनन्त विविध शरीर धारण करने पड़ेंगे। संसार में जन्म-मरणादि के भयंकर अपार दुःख हैं। भगवान महावीर ने अपनी अन्तिम देशना में यही फरमाया है
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगाणि मरणाणि य ।
अहो दुक्खो ह संसारो, जत्थ कीस्संति जंतवो1 जन्म दुःखरूप है, बुढ़ापा भी दुःखमय है, रोग और मृत्यु भी दुःख रूप हैं। आश्चर्य है कि यह संसार दुःखमय है, जहाँ अज्ञानी जीव क्लेश पाते हैं, (फिर भी इसे छोड़ने व सीमित करने का प्रयत्न नहीं करते।)
इस जन्म से पूर्व भी इस जीव ने एक के बाद दूसरी अनेक गतियों में लगातार परिभ्रमण किया है, वह जन्ममरण का चक्र अभी तक चल ही रहा है। इसका कारण जीव स्वयं ही है। किसी भी जीव को कोई दूसरा
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ० १६ गा० १५
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