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८६ | अप्पा सो परमप्पा परन्तु सभी अवसरों को उन्होंने खो दिया, उन्हें आत्मा के विषय में ये शास्त्रोक्त प्रश्न उठते भी कहाँ से ? पूर्वजन्मों में एकेन्द्रिय जोवों में या द्वीन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तक की विविध योनियों में जन्म लिया, परन्तु वहाँ तो इन प्रश्नों के उठने का अवकाश ही नहीं था। इसलिए मैं कौन हैं ? इत्यादि विचारणा और जिज्ञासा भी नहीं हुई। मगर आश्चर्य तो यह है कि मनुष्यभव में सभी प्रकार के बाह्य संयोग प्राप्त होते हुए भी अधिकांश मनुष्यों को कहां इन आत्मविषयक बातों को श्रवण, मनन करने की रुचि, जिज्ञासा या तमन्ना होती है ? आत्मरत्न को जाना-परखा नहीं
___ यह तो वैसा ही हुआ कि एक ग्रामीण ब्राह्मण को एक बार जंगल में जाते हुए एक चिन्तामणिरत्न मिला। फिर उसने भोजन, मकान, शयनसामग्री आदि जिस-जिस वस्तु का चिन्तन किया, वह वस्तु उसे मिलती गई। परन्तु उस मूर्ख ने जाना नहीं कि चिन्तामणिरत्न मेरे पास है, उसी का यह प्रभाव है। फलतः एक कौआ उसके पास आकर बारम्बार काँवकाव करने लगा। तब उस मूर्ख ने उसे उड़ाने के लिए चिन्तामणिरत्न उसकी ओर फेंका । चिन्तामणि फेंकते ही मकान, शयनसामग्री आदि सब सुख-सामग्री लुप्त हो गई। वह मूर्ख ब्राह्मण पहले के जैसा ही हो गया। इसी प्रकार जिसे इस देवदुर्लभ मनुष्यजन्म में किसी प्रकार से आत्मा रूपी चिन्तामणिरत्न प्राप्त हुआ। परन्तु अविवेकी मनुष्य उसे पर-पदार्थों में आसक्त होकर व्यर्थ ही खो देता है । जिसके लिए पद्मनन्दी पंचविशति में कहा गया है
'तदेवकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः ।
रमणीयेष सर्वेष तदेकं पुरतः स्थितम् ।।४३।। समस्त शास्त्ररूपी महासमुद्र का मथन करने से वही एक मात्र आत्मारूपी चिन्तामणि उत्कृष्ट रत्न निकला है, जो अपने सामने पड़ा है। और संसार के सभी रमणीय रत्नों तथा मनोरम्य पदार्थों में वही ज्ञानानन्दमय आत्मरत्न ही रमणीय तथा उत्कृष्ट है ।
अविवेकी मनुष्य ऐसे आत्म-चिन्तामणिरत्न को पाकर भी उसके स्वरूप को जानने-समझने और परखने का प्रयत्न नहीं करता। वह इस महामूल्यवान रत्न को विषय-वासनाओं के मोहक जाल में फंसकर अथवा हीरा, पन्ना, माणिक आदि पाषाण रत्नों के धन के अर्जन करने में व्यस्त रहकर खो देता है।
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