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८४ | अप्पा सो परमप्पा
प्रकार शुद्ध, सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा अपने पास होते हुए भी अज्ञानी मानव उसे जानने-मानने तथा उसके ज्ञान, आनन्द और शक्ति के खजाने को बाहर ढूंढ़ने और पाने जाता है। यदि उसे आत्मा का ज्ञान-बोध हो जाए तो उसे अपने अन्दर ही ज्ञान, आनन्द, सुख-शान्ति और शक्ति मिल सकती है । किन्तु आत्मा को यथार्थ रूप से जानने-पहचानने में ही सच्चा सुख है, वास्तविक शान्ति है, यह उसे पता ही नहीं है। इसीलिए एक अध्यात्म रसिक ने कहा है
इदं तीर्थं इदं तीर्थ, भ्रमन्ति तामसा जनाः ।
आत्मतीर्थ न जानन्ति, सर्वमेव निरर्थकम् ॥ अज्ञानी मनुष्य अपने अन्तर् में होते हुए भी आत्मतत्त्व को नहीं जानता, वह बाहर भटकता फिरता है।
आत्मज्ञान से अनभिज्ञ एक व्यक्ति किसी आत्मानुभवी के पास पहुंचा और उससे कहा - 'मुझे आत्मज्ञान दीजिए।' उन्होंने उस स्थूलबुद्धि वाले मानव से कहा- "तुम्हें मानसरोवर की मछलियाँ आत्मज्ञान बताएँगी । उनके पास जाकर कहो कि मुझे आत्मज्ञान चाहिए।" मानसरोवर की मछलियों के पास जाकर उनसे आत्मज्ञान देने प्रार्थना की की । इस पर मछलियों ने कहा-"हमें प्यास लगी है, पहले तुम हमें पानी दो, फिर हम आत्मज्ञान बताएँगी।" उस व्यक्ति ने आश्चर्यचकित होकर कहा-“वाह ! तुम मधुर-जल से परिपूर्ण इस सरोवर में रहती हो, फिर भी मुझसे पानी मांग रही हो ।" तब उन मछलियों ने कहा-"अरे भाई ! तुम्हारा ज्ञान तो तुम्हारी आत्मा में भरा पड़ा है, उसे तुम जानते और प्रकट करते नहीं और उस ज्ञान को बाहर से प्राप्त करना चाहते हो । तुम अपने को पहचानो। तुम स्वयं ज्ञानमय हो ।” आत्म बाह्य पदार्थों की ओर आकर्षित होकर आत्मा को भूल जाता है
वर्तमान युग का भौतिकदृष्टि-प्रधान मानव इन्द्रिय-विषयों के तथा क्रोध, मोह, आसक्ति, अहंकार, राग आदि मनोविकारों की ओर झटपट आकर्षित हो जाता है। इनमें लुब्ध होकर वह अपने आप (आत्मा) को भूल जाता है । भोला मानव चारों ओर दृष्टिपात करता है तो देखता है कि चारों ओर इन्द्रिय-विषयों के पोषक और मोहक तत्त्व पड़े हैं । कहीं सुन्दर रूप को देखने का, कहीं मधुर मनोज्ञ संगीत सुनने का, कहीं भीनीभीनी रम्य सुगन्ध सूघने का, कहीं स्वादिष्ट और चटपटें खाद्यपदार्थों
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