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८२ | अप्पा सो परमप्पा
मानव कहलाते हैं, हैं वे वानररूप ही । सचमुच, जो मानव मानव-जीवन पाकर आत्मा का भान नहीं करता, उसके जीवन में और वानर के जीवन में क्या अन्तर है ? आत्म-भानरहित मानव के जैसे दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान, एक मुख, एक नाक आदि होते हैं, वैसे तो वे बन्दर के भी हैं । अगर उपर्युक्त अंगोपांगों वाले को मानव कहें तो बंदर को भी मानव कहना चाहिए | परन्तु जो मानव देह से भिन्न आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है, वही वास्तव में मनुष्य है । उसी को ज्ञानी पुरुष उत्तम मानव कहते हैं जो मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है ? मेरे से भिन्न पदार्थ कौन-कौन से हैं ? इन सब बातों को जानने का प्रयास करता है, जानता है ।
धर्म आत्मा को यथार्थ रूप से जानने में है
मनुष्य जन्म पाकर प्रचुर धन या विषय-सुख - सामग्री एकत्र कर लेने से आत्मा की महत्ता नहीं बढ़ जाती और निर्धनता होने से आत्मा की महत्ता घट नहीं जाती, क्योंकि जैसे निर्धन और सधन के जन्म और मरण का एक ही मार्ग है, वैसे ही धर्म और मोक्ष का मार्ग भी सभी मनुष्यों के लिए एक ही प्रकार का है । निर्धन हो या सधन, जो आत्मा का भान करता है, उसी को धर्म होता है
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मानव द्वारा आत्मा का यथार्थ भान : परमात्मभाव का कारण
आत्मा को जानने-पहचानने से धर्म और अन्त में मोक्ष प्राप्ति = परमात्मभाव-प्राप्ति का साधन इस मनुष्यदेह में ही है । दूसरो गति में आत्मा का यथार्थ ज्ञान-भान हो सकता है, किन्तु मोक्षदशा का पूर्ण साधन मनुष्यगति के अतिरिक्त अन्य गति में हो नहीं सकता । पुण्य की प्रचुरता से जीव स्वर्ग में जाता है, पाप की प्रचुरता से नरक में और माया कपट की अधिकता से तिर्यंचगति में जाता है । तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में किसीकिसी को आत्मा का भान होता है, परन्तु मोक्षदशा - परमात्मदशा प्राप्त करने का पूर्ण पुरुषार्थ उनमें भी नहीं हो सकता । अतः मनुष्य शरीर पाकर मानव ही आत्मा का यथार्थ भान करके मोक्षदशा = परमात्मदशा प्राप्त करने का पूर्ण पुरुषार्थं कर सकता है ।
आत्मा की समझ नहीं, शरीरादि की समझ है
अधिकांश मनुष्यों को आत्मा नाम की वस्तु समझ में नहीं आती । वे प्रत्यक्ष दृश्यमान शरीर को ही आत्मा समझ लेते हैं । या शरीर से सम्बन्धित मन, बुद्धि, चित्त या इन्द्रियों को ही आत्मा समझ लेते हैं । शरीर के
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