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८० | अप्पा सो परमप्पा
प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत यदि उसने ‘पर (आत्मा से बाह्य) पदार्थों को अपना (आत्मरूप) मान लिया, तो वह (जन्म-मरणरूप) संसार में परिभ्रमण करता रहेगा।" अपने विषय में भ्रान्ति हैं, 'पर' विषयक नहीं
जीव (आत्मा) के लिए सबसे बड़ा अगर कोई रोग है तो वह आत्मभ्रान्ति है, अपने विषय का अज्ञान है। वह स्वयं अपने आपको पहचानता-जानता नहीं है। उसे यह पता ही नहीं है कि मैं कौन हूँ ? श्रीमद् रायचन्दजी के शब्दों में
"हुँ कोण छु, क्या थी थयो, शु स्वरूप छे मारू खरू ?'1
"अपने विषय में व्यक्ति इतना अनजान है कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हैं, मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ?" यह नहीं जानता; जितनी कि अपने बाह्यस्वरूप की और जड़ सम्बन्धों की उसे जानकारी है। सामान्य मनुष्य गाढ निद्रा में सोया हआ हो, और कोई उसका नाम लेकर आवाज दे तो वह झट जाग जाता है । वह यह भी जान जाता है कि मुझे ही बुला रहा है और अमुक व्यक्ति बुला रहा है। वह दोनों को जान-पहचान जाता है। इसी प्रकार समग्र विश्व में व्यक्ति अनेक पदार्थों को जानता-पहचानता है। कई लोगों की स्मरणशक्ति इतनी तीव्र होती है कि वर्षों पहले कोई व्यक्ति उससे मिला हो, उसे वे भूलते नहीं हैं। उनकी पहचान वैसी की वैसी होती है, परन्तु उन्हीं व्यक्तियों को अपनी पहचान नहीं है । अपनी पहचान में भ्रान्ति है । यह भ्रान्ति दूर न हो, वहाँ तक 'मैं आत्मा हूँ' इसका यथार्थ ज्ञान-भान नहीं हो पाता । मैं आत्मा हूँ ?' इसका जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक वह मुझे क्या करना चाहिए ?, इसे कैसे जान सकता है ? यह आत्मभ्रान्ति अनेक जन्मों की है
यह भ्रान्ति केवल एक जन्म की ही नहीं, अनन्त जन्मों को भी सम्भव है । आत्मा तो अनन्तकाल से है, वह कोई नया नहीं होता, शरीर
१ (क) अमूल्य तत्व-विचार
(ख) तुलना कीजिएकोऽहं, कथमिदं जातं, को वै कर्ताऽस्य विद्यते ? उपादानं किमस्तीह ?, विचारः सोऽयमीदृशः ।।
-शंकराचार्य
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