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अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ६३
शुद्ध, निरुपाधिक और ज्ञानादि गुणयुक्त स्वरूप को जाने-माने बिना परमशुद्ध पूर्ण ज्ञानानन्दयुक्त परमात्मभाव को या मोक्ष को प्राप्त करना कैसे सम्भव हो सकता है ? इसलिए सभी महापुरुषों और शास्त्रों ने आत्मतत्व ( अपने आपके स्वरूप ) को सर्वप्रथम जानने का निर्देश किया है ।
सर्वप्रथम आत्मा का ज्ञान करने से लाभ
परमात्म-प्राप्ति या मोक्ष प्राप्ति की साधना में सर्वप्रथम आत्मज्ञान को इसलिए भी महत्व दिया गया है कि मोक्ष या परमात्मपद की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब सभी कर्मों से आत्मा मुक्त हो । आत्मा की सम्पूर्ण रूप से शुद्धि भी तभी हो सकती है, जब साधक समग्ररूप से आत्मभावों में रमण करे । आत्मभावों का ज्ञान करे और शुद्ध आत्म-तत्व पर पूर्ण श्रद्धा करे । इसलिए आत्मज्ञान से विहीन साधक चाहे जितना भी कठोर तप करता हो, कठोर क्रियाकाण्ड करता हो, अथवा घोर कष्ट सहन करता हो, वह अनेक करोड़ पूर्व (वर्ष) तक जिन कर्मों को क्षय कर पाता है, उन्हीं कर्मों को त्रिगुप्ति से युक्त आत्मज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास भर में क्षय कर डालता है । यह सिद्धान्त दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों जैनसम्प्रदायों के ग्रन्थों द्वारा मान्य है 11
आत्मज्ञानी समझा किसे जाए ?
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या अत्मज्ञानी बनने के लिए हजारों पुस्तकों, शास्त्रों और ग्रन्थों का पढ़ जाना, आगमों को कण्ठस्थ करना या तत्त्वज्ञान या दशनशास्त्र का अध्ययन करना, सिद्धान्तों एवं थोकड़ों की चर्चा में निपुणता प्राप्त कर लेना आवश्यक है, अथवा और कोई शर्त है आत्मज्ञानी बनने की ?
इस विषय में सर्वज्ञ आप्त पुरुषों का यहाँ तक कथन है कि साढ़े नौ पूर्वों का अध्ययन करने वाला भी अज्ञानी हो सकता है ।
कोई व्यक्ति न्यूयार्क या मास्को की विशाल लायब्रेरी की पचास हजार पुस्तकों को पढ़ जाए और उन पुस्तकों के ज्ञान को दिमाग में ठूंस
१९ जं अन्नाणी कग्मं खवेइ बहुयाई वासकोडीहिं ।
तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसास मित्तेण । - बृहत्कल्पभाष्य उ. १, गा. ११७० अज्ञानी तपसा जन्मकोटिभिः कर्म यन्नयेत् ।
अन्तं ज्ञानतपोयुक्तस्तत् क्षणेनैव संहरेत् ॥ - अध्यात्मसार आत्मनिश्चयाधिकार
श्लो- १६२
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