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आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें | ६६
प्रकार दीपक स्व-पर-प्रकाशक होता है, उसको देखने के लिए किसो दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं रहतो, उसी प्रकार स्व-पर-प्रकाशक आत्मा को देखने-जानने के लिए किसी दूसरे साधन या दूसरे के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि ज्ञान आत्मा का अविनाभावी गुण है, और वह स्व-पर-प्रकाशक है।। अतः आत्मा भो स्व-पर-प्रकाशक है। सूर्य को दीपक से देखने की जरूरत नहीं पड़तो; क्योंकि सूर्य तो स्वयं प्रकाशमान है । प्रकाश को प्रकाश से देखने की क्या आवश्यकता ? बृहदारण्यक उपनिषद् में इसी विषय पर ऋषि ने प्रश्न उठाया है
विज्ञातारं अरे! कि विजानीयात् ? "अरे जो स्वयं विज्ञाता है, उसे कैसे जाना जाए ?"
ज्ञान की सत्ता को जानने के लिए दूसरा ज्ञान कहाँ से लाया जाए? ज्ञान तो अपने आपको जानने के लिए स्वयं हो पर्याप्त है । अंधेरे को देखने के लिए दीपक की आवश्यकता होतो है, इसी प्रकार दोपक तथा अन्यान्य वस्तुओं को जानने के लिए ज्ञान को आवश्यकता रहता है। चूंकि दोपक और ज्ञान तो स्वयं प्रकाशमान हैं, उन्हें जानने के लिए दूसरे दीपक या दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। इसीलिए आगमों में कहा गया
'संपिक्खए अप्पगमप्पएण' आत्मा से आत्मा का सम्प्रेक्षण करे, जाने-देखे।
ज्ञानचक्षओं से शुद्ध आत्मा को जानना-देखना या अनुभव करना अभेदभक्ति है। इस प्रकार की अभेदभक्ति से आत्मा पर आए हए आवरणों का क्षय होकर आत्मा सिद्ध परमात्मा-रूप दिखाई देता है। परमात्म-सूख भी प्राप्त होता है। अर्थात्-भावश्रत से यानो ज्ञानचक्ष से आत्मा को जानने-देखने का प्रयत्न करे तो वह दिखाई देती है। उपनिषद् के एक ऋषि के भी ऐसे ही उद्गार हैं
“आत्मन्यैवात्मानं पश्येत् ।' आत्मा को आत्मा से ही देखो-जानो।
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि आत्मा को यथार्थ जान-देख नहीं सकते। यदि इन्द्रियों से आत्मा को देखने का प्रयत्न किया जाएगा तो निराशा या भ्रान्ति ही पल्ले पड़ेगी। इन्द्रियों से तो बाहर के जड़ पदार्थ ही देखे जा
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