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७० | अप्पा सो परमप्पा
सकते हैं, आत्मा जाना देखा नहीं जा सकता । इन्द्रियों द्वारा आत्मा को देख सकना तो दूर, उसकी अनुभूतियों का तथा आशा-निराशा, प्रसन्नताअप्रसन्नता, सन्तोष - असन्तोष, मोह-द्रोह, रोष-द्व ेष, राग - मोह आदि का भी अनुभव नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, आत्मा अपनी चेतना की गतिविधियों तथा विकास- ह्रास को भी इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जान-देख नहीं सकती । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा वैज्ञानिक युक्तियों, आदि से खण्ड-खण्ड रूप में विभिन्न द्वन्द्वात्मक विभिन्नताओं का दर्शन होता है, किन्तु इनसे पूर्ण आत्मतत्त्व को जाना देखा या पाया नहीं जा सकता । इन्द्रियाँ पंच भौतिक पदार्थों-जड़पुद्गलों की बनी होने से वे सजातीय स्थूल जड़ पदार्थों को ही जान देख सकती हैं। उनसे चैतन्यस्वरूप पूर्ण आत्मतत्त्व को तथा आत्मा की गतिविधियों को जान देख सकना सम्भव नहीं है ।
आत्मा जड़ पदार्थों से सर्वथा पृथक् गृहीत होता है
जड़-पदार्थों के साथ रहने से चैतन्यमय आत्मा कभी जड़ नहीं हो जाता, वह चेतन ही रहता है । अध्यात्मरसिक श्री सहजानन्दजी की इन उक्तियों और युक्तियों से भरी कविता कितनी प्रेरणाप्रद है, इस सम्बन्ध में
अग्नि काष्ठ - आकारे रहे पण, थाय न काष्ठ ए बात नक्की । शाके लूण देखाय नहीं पण, अनुभवाय ते स्वाद थकी ॥१॥ शरीराकार रही शरीर न थाऊं, लवण जेम जणाऊं सही । रत्नदीप जेम स्व-पर- प्रकाशक, स्वयं ज्योति छु प्रगट अहीं ॥२॥ अग्नि जेम उपयोग चौंपिए, पकड़ाऊं कोई सज्जन थी । प्रयोग थी बिजली माखण जेम, सहजानन्न घन अनुभव थी ||३||
अरणि की लकड़ी में वर्षों तक अग्नि रहती है, परन्तु वहाँ वह आँखों से दिखाई नहीं देती । वह तो घर्षण करने पर ही प्रकट होती है। वर्षों तक लकड़ी के साथ रहने के बावजूद भी वह अग्नि की शक्ति कभी लकड़ी नहीं बन जाती । यद्यपि वह शक्ति उस लकड़ी के अणु-अणु में व्याप्त होकर रहती है तथापि कोई उसे लकड़ी से पृथक् करना चाहे तो भी नहीं कर सकता । वह शक्ति रूप में उसमें रहती ही है, फिर भी वह उस लकड़ी के आकार की नहीं बन जाती, न ही वह उस लकड़ी के गुणधर्मों को अंगीकार करती है ।
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