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६८ | अप्पा सो परमप्पा को ज्ञानादि की विभिन्न साधनाओं में प्रयुक्त करने पर ही वह प्रकट होती है, इस प्रकार शरीर और आत्मा का जो पृथक्करण (विवेक) कर पाता है, वही पण्डित है। आत्मा को जड़ माध्यमों से जाना-देखा नहीं जा सकता ___अभिप्राय यह है कि अधिकांश व्यक्ति शरीर में स्थित आत्मा को शरीर में खोजने की कोशिश करते हैं। वहाँ आत्मा को प्रत्यक्ष न पाकर यही समझ लेते हैं कि शरीर के साथ संलग्न मन, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियाँ, प्राण या अंगोपांग ही आत्मा है। परन्तु वे देखते हैं-इन इन्द्रियों के द्वारा ही। क्या इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि या हृदय आदि अतीन्द्रिय और अमूर्त (अरूपी) आत्मा को देख सकते हैं ? कदापि नहीं । इन्द्रियों आदि के द्वारा देखने पर तो बाह्य जड़ पदार्थ ही दिखाई दे सकते हैं, आत्मा नहीं। शरीर और आत्मा को एक मानने से भी शरीर में स्थित रहते हए भी आत्मा शरीर से भिन्न दिखाई नहीं दे सकता। जिस प्रकार स्फटिक-प्रतिमा में स्फटिक तो जड़ है, वह तो इन चर्मचक्षओं से देखा जा सकता है, उसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ आदि भी जड़ होने से इन चर्मचक्षुओं से देखे जा सकते हैं। मगर आत्मा तो चैतन्यमूर्ति अमुत्तिक और अतोन्द्रिय है, वह बाह्य नेत्रों से नहीं दिखाई दे सकती । ज्ञानचक्षओं-अन्तर नेत्रों से ही उसे देखा जा सकता है। आत्मा को किस माध्यम से जाने-देखें ?
प्रश्न होता है, आत्मा को जब इन्द्रियों आदि से नहीं देखा जा सकता, तब आत्मा को टेखने-जानने का माध्यम क्या है ? आचारांग सत्र में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है--
_ 'जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पडिसखाए।'
जिससे स्व और परपदार्थों को जाना जाता है, वह आत्मा ही है। जानने की इस शक्ति की अपेक्षा ही आत्मा की प्रतीति की जा सकती है।
आत्मा को जानने-देखने के लिए किसी दूसरे भौतिक प्रकाश की आवश्यकता नहीं । अन्तर् में रोम-रोम में जगमगाता हुआ आत्मा का ज्ञान प्रकाश ही आत्मा को तथा आत्मेतर बाह्य पदार्थों को देखने-जानने में समर्थ है। अनन्त तेजोमय आत्मा स्व-पर-प्रकाशक है । उसी के उज्ज्वल एवं अन्तःस्फुरित प्रकाश से आत्मा स्वयं प्रतिभासित हो जाता है। जिस
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