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आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ४५
"जब जीव (आत्मा) शुभ या अशुभ रूप में परिणत होता है, तब वह शुभ या अशुभ हो जाता है। और जब वह शुद्ध रूप में परिणत होता है, तब शुद्ध हो जाता है। परिणामों के अनुसार जीव (आत्मा) तद्रूप भाव वाला हो जाता है।"
आत्मा यदि कूटस्थ नित्य होता तो वह कभी शान्त, कभी क्रुद्ध, कभी रुष्ट, कभी तुष्ट, कभी सुखो, कभी दुःखी तथा कभी प्रपन्न और कभी उदास नहीं होता। न ही वह बालक, युवक और वृद्ध होता, तथा वय के अनुसार अनुभव और समय में परिवर्तन भी नहीं होता। इसी प्रकार कूटस्थनित्य आत्मा सदाकाल के लिए एक ही गति,योनि तथा एक ही शरीर में रहता। वह अपने शुभाशुभ कर्मानुसार मनुष्य, देव, नरक या तिर्यञ्च गति में विभिन्न योनियों में परिभ्रमण न करता। यदि यह कहा जाए कि सांख्य दर्शन की मान्यता के अनुसार ये ज्ञान तथा सूख-दुःख आदि सब प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं; तब तो आत्मा के निकल जाने के पश्चात् भी जड़ प्रकृति के सुख-दुःख, ज्ञान आदि धर्म मृत शरीर में होने चाहिए, पर वे होते नहीं। आत्मा से युक्त शरीर के समान आत्मा से रहित मृत शरीर को या शरीर के किसी अवयव को हँसते-रोते या रुष्ट-तुष्ट होते किसी ने कभी नहीं देखा। अतः ये प्रकृति के धर्म नहीं, आत्मा के धर्म हैं । जैनदर्शनानुसार आत्मा एकान्त कूटस्थनित्य नहीं है; वह परिणामीनित्य है।
इस तथ्य को दूसरे दृष्टिबिन्दु से समझें। आत्मा द्रव्य है। द्रव्य का लक्षण है-सत् । वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। आत्मा कर्मानुसार नरक, तिर्यञ्च, देव, मनुष्य आदि पर्यायों में उत्पन्न होती है, यह उत्पाद है, अथवा सुख-दुःख, रुष्ट-तुष्ट आदि रूप में परिणमन (परिवर्तन होना) भी उत्पाद है। उत्पन्न होने की तरह उन-उन पर्यायों का नाश होना व्यय है और इन सभी अवस्थाओं में, नानारूप पाकर भी आत्मा का अपने स्वरूप से च्युत न होना, अपने स्वरूप में स्थिर रहना ध्रौव्य == स्थिरता है । आत्मा में चाहे जितनी पर्यायें उत्पन्न और नष्ट हों, परन्तु आत्मा बदलता नहीं है, वह सदा अविनाशी रहता है । आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह जैसा है, वैसा ही रहता है। भगवद्गीता में इसी तथा को स्पष्ट करते हुए कहा है-आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, न
१ उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । सत् द्रव्यलक्षणम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र अ. ५
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