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५४ | अप्पा सो परमप्पा दृष्टि से अरूपी है, उसमें कोई शब्द, रूप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नहीं होता। न ही वह दीर्घ, हरव, वृत्त, त्र्यंस (तिकोन), चतुरस्र (चतुष्कोण), होता है, न ही परिमण्डलाकार होता है। अर्थात-आत्मा का कोई रंग रूप नहीं होता, न आकार-प्रकार होता है। वह अरूपी सत्ता है। न तो वह शरीर है, न उत्पत्ति वाली है, वह असंग है। न ही वह स्त्री है, पुरुष है या नपूसक है, अथवा और किसी आकृति या लिंग वाली है। आचारांग सूत्र में निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मा का स्वरूप स्पष्टतः बताया गया है। कोई कह सकता है कि फिर आत्मा किस प्रकार का हैं ? जिस प्रकार गूगा गुड़ आदि के स्वाद को वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता, शब्दों द्वारा उसका स्वरूप समझाया नहीं जा सकता, बुद्धि द्वारा भी उसका स्वरूप अगम्य है, इन्द्रियों द्वारा अगोचर है,1 तर्क या उपमान द्वारा भी उसे बताया नहीं जा सकता वह तो अनुभवगम्य है। यह सब कथन निश्चयदृष्टि से किया गया है।
निश्चयदृष्टि से आत्मा कर्मों का कर्ता या भोक्ता भी नहीं है। क्योंकि कर्मों का आस्रव (आगमन) अथवा कर्मों का बन्ध ये सभी परभाव हैं, विभाव हैं । आत्मा परभावों का कर्ता कैसे हो सकता है ? इसी कारण निश्चयदृष्टि से आत्मा स्वभाव का ही कर्ता-भोक्ता कहा जाता है। व्यवहारनय की दृष्टि से यह कहा जाता है कि आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । वही रागद्वेषादिवश कर्मबन्धन करता है, मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग के कारण वही कर्मों का आस्रव और बन्ध करता है । परन्तु निश्चयन य की दृष्टि से शुद्धआत्मा राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि विकारों से रहित है । यही आत्मा का यथार्थ स्वरूप है।
१ तुलना कीजिए- “न तत्र चक्षुर्गच्छति, त वाग्गच्छति, नो मनः ।"
--केनोपनिषद् खण्ड १, कण्डिका ३ २ से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्ट, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले । ण किण्हे,
ण णीले, ण लोहिए, ण हालि द्द, ण सुक्किल्ले । ण सुब्भिमंधे, ण दुरभिगंधे । ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे । 'ण कक्खडे, ण म उए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध, ण लुवखे ।....से ण रुद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे,ण फासे इच्चेतायंति ।....ण काऊ, ण रूहे, ण संगे, ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा । अरूवी सत्ता। उवमा ण विज्जए। सव्वे सरा णियट्ट ति, तक्का तत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया ।
-आचारांग १/५६२-५६३
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