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६२ | अप्पा सो परमप्पा
चलना-फिरना, बोलना आदि क्रियाओं को देखकर हम अनुमान लगा लेते हैं कि देह में कोई विशिष्ट शक्ति है, जिसके द्वारा ये क्रियाएं हो रही हैं । वह आत्मा ही । समझ गये न ?”
आत्मा निकाल कर हाथ में लेकर दिखाने की चीज नहीं है ।" मुण्डकोपनिषद्' में इसी तथ्य को उजागर किया गया है ।
इन्हें भी आत्म-प्रेक्षण नहीं कहा जा सकता
अतः आत्मा ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसे किसी बाह्य भौतिक पदार्थ द्वारा देखा जा सके। उसकी कोई छवि या मूर्ति भी नहीं है, न किसी ने उतारी या बनाई है कि जिसे देखकर आत्मा की प्रतिच्छाया या प्रतिबिम्ब को पकड़ा जा सके, क्योंकि वह अमूर्त, अरूपी और निराकार है । और किसी की परछाई या प्रतिबिम्ब को पकड़ लेने मात्र से भी उसकी प्राप्ति नहीं हो जाती ।
यह देखा जाता है कि प्रायः साक्षर, विद्वान्, पंडित, दार्शनिक, तार्किक या सुशिक्षित जन आत्मा को शास्त्रों और ग्रन्थों में खोजते हैं । कई लोग भगवाणी में आत्मा को ढूंढते हैं, कई साधुओं और बहुश्रुतों के प्रवचनों में उसे तलाशते हैं । कई रिसर्च स्कॉलर आत्मा के सम्बन्ध में सैकड़ों ग्रन्थों एवं पुस्तकों का मन्थन करके उनका सार दिमाग में भरते हैं और अपना थीसिस ( शोध - महानिबन्ध) लिखकर पूर्ण करते हैं । उस पर उन्हें पी-एच० डी० (डॉक्टर) की उपाधि मिल जाती है । क्या इन सबके प्रयास को आत्मा का अवलोकन, आत्मा का प्रेक्षण-दर्शन या अन्वेषण अथवा आत्मा की प्राप्ति कहा जा सकता है ?
इसका समाधान यह है कि इस प्रकार से ग्रन्थों, पुस्तकों या प्रवचनों, लेखों आदि से आत्मा के विषय में जानकारी कर लेने मात्र से उसे
१ न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा, नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥
— मुण्डकोपनिषद् उसे आँखों से या वाणी से अथवा अन्य इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता । कोई तप या क्रियाकाण्ड से उसे जाना नहीं जा सकता है । जिसका अन्तःकरण विशुद्ध होता है, वही अविकल ( अखण्ड ) ध्यान के द्वारा ज्ञान-रूप- गुण के माध्यम से आत्मा को देख सकता है ।
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