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आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ४३ प्राणी के शरीर के अणु-अणु में व्याप्त । यह सिद्धान्त है भी अनुभवसिद्ध । हम देखते हैं कि शरीर के किसी भी अंग में चोट लगती है तो पीड़ा का अनुभव उसी एक अंग को नहीं, सर्वत्र होता है। शरीर से बाहर कहीं भी किसी चीज पर प्रहार होता है तो उसकी कोई पीड़ा नहीं होती, क्योंकि शरीर से बाहर तत्-शरीरस्थ आत्मा नहीं है, इसलिए पोड़ा भी नहीं होती। तुम्बे को किसी भी कोने से काट कर लोग चखते हैं, तो उसकी कटुता का स्वाद आएगा, परन्तु तुम्बे से बाहर कहीं भी किसी चीज को तोड़कर चखते हैं तो वैसा कड़वा स्वाद नहीं आता । अंगूर का भी जितना कद होगा, उतने में एक सरीखा मिठास व्याप्त होगा। इसो प्रकार आत्मा भी प्रत्येक जीव के शरीर कण कण में व्याप्त है, शरीर तक ही सीमित है, सर्वव्यापी नहीं।
उपनिषदों में आत्मा का आकार-प्रकार वर्णन उपनिषदों में आत्मा का आकार विभिन्न ऋषियों ने पृथक्-पृथक् बताया है। उसका जैनदर्शन मान्यता से जरा भो मेल नहीं खाता । मुण्डकोपनिषद् में बताया गया है
‘एसो अणुरात्मा 'यह आत्मा अणुरूप है ।' कठोपनिषद् में बताया है.-'अंगुष्ठमात्रः आत्मा'2 'आत्मा अंगूठे के बराबर (प्रमाण की) है।' श्वेताश्वतर उपनिषद् इनसे अलग ही राग अलापता है
"बालान-प्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञ यः ॥3 बाल के अग्रभाग का जो सौवाँ हिस्सा है, उसके सौवें भाग के समान जीवात्मा समझना चाहिए।
इसी तरह छांदोग्य-उपनिषद् में भी आत्मा के आकार-प्रकार के विषय में विचित्र बातें कही गई हैं
१ मुण्डकोपनिषद् ३/१/8, २ कठोपनिषद् २/६/१७ ३ श्वेताश्वतरोपनिषद् ५/8,
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