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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
आगे करके कोई प्रश्न पूछे तब अकेले श्रमण उसका उत्तर दे सकता है अर्थात् मार्गप्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रश्नोत्तरों आदि का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नहीं।2
आर्यिकाओं की वसतिका में श्रमणों को नहीं जाना, ठहरना चाहिए, वहाँ क्षणमात्र या कुछ समय तक की (अल्पकालिक) क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए। अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा-ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें पूर्णतः निषिद्ध हैं। __वृद्ध तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य (प्रामाणिक) श्रमण भी यदि आर्याजन (आर्यिका आदि) से संसर्ग रखता है तो वह लोकापवाद का भागी (लोगों की निंदा का स्थान) बन जाता है। तब जो श्रमण अवस्था में तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं है और न जो उत्कृष्ट तपस्वी
और चारित्रवान् हैं वे आर्याजन के संसर्ग से लोकापवाद के भागी क्यों नहीं होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे। अत: यथासंभव इनके संसर्ग से दूर रहकर अपनी संयमसाधना करना चाहिए।
आर्यिकाओं के उपाश्रय में ठहरने वाला श्रमण लोकापवाद रूप व्यवहार निंदा तथा व्रतभंग रूप परमार्थ निंदा इन दोनों को प्राप्त होता है। इस प्रकार साधु को केवल आर्याजनों के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए अपितु अन्य भी जो-जो वस्तु साधु को परतंत्र करती हैं उस-उस वस्तु का त्याग करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। उसके त्याग से उसका संयम दृढ़ होगा। क्योंकि बाह्य वस्तु के निमित्त से होने वाला असंयम उस वस्तु के त्याग से ही संभव होता है। आर्यिकाओं के गणधर
आर्यिकाओं की दीक्षा, शंका-समाधान, शास्त्राध्ययन आदि कार्यों के लिए श्रमणों के संपर्क में आना आवश्यक होता है। श्रमण संघ की इस व्यवस्था के अनुसार साधारण श्रमणों की अकेले आर्यिकाओं से बातचीत आदि का निषेध है। आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण स्वाध्याय आदि विधि संपन्न कराने के लिए गणधर मुनि की व्यवस्था का विधान है।
आर्यिकाओं के गणधर (आचार्य आदि विशेष) को निम्नलिखित गुणों से संपन्न माना गया है। प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नी (धर्म और धर्मफल में अतिशय उत्साह वाला), अवद्य (पाप) भीरू, परिशुद्ध (शुद्ध आचरण वाले), संग्रह (दीक्षा, उपदेश आदि द्वारा शिष्यों के ग्रहण संग्रह) और अनुग्रह में कुशल, सतत सारक्षण (पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्ति) से युक्त, गंभीर, दुर्घष (स्थिर चित्त एवं निर्भय अन्त:करण युक्त), मितभाषी, अल्पकौतुकयुक्त, चिरप्रवर्जित और गृहीतार्थ (तत्त्वों के ज्ञाता) आदि गुणों से युक्त आर्यिकाओं के मर्यादा उपदेशक गणधर (आचार्य) होते हैं।"
इन गुणों से युक्त श्रमण तो अपने आप में पूर्णत्व को प्राप्त करने वाला होता है और यह तो श्रमणत्व की कसौटी भी है। ऐसे गणधर आर्यिकाओं को आदर्श रूप में प्रतिक्रमणादि विधि संपन्न करा सकते हैं। उपर्युक्त गुणों से रहित श्रमण यदि गणधरत्व धारण करके आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण कराते एवं प्रायश्चित्तादि देता है तब उसके गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ, इन चार कालों की विराधना होती है। अथवा छेद, मूल, परिहार और पारंचिक, ये चार प्रायचित्त लेने पड़ते हैं। साथ ही ऋषिकुल रूप गच्छ