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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
आर्यिकायें अध्ययन, पुनरावृत्ति (पाठ करने), श्रवण, मनन, कथन, अनुप्रेक्षाओं का चिंतन, तप, विनय तथा संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास रूप उपयोग में सतत तत्पर रहती हैं तथा मन, वचन और कायरूप योग के शुभ अनुष्ठान से सदा युक्त रहती हुई अपनी दैनिकचर्या पूर्ण करती हैं।
किसी प्रयोजन के बिना परगृह चाहे वह श्रमणों की ही वसतिका क्यों न हो या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं। स्व-पर स्थानों में दुःखार्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य) कराना, भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरंभ अर्थात् जीवघात की कारणभूत क्रिया में आर्यिकायें पूर्णतः निषिद्ध हैं। संयतों के पैरों में मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें पूर्णतः निषिद्ध हैं। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और कला- ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरंभ क्रियायें हैं। पानी लाना, पानी छानना (छेण), घर को साफ करके कूड़ा-कचरा उठाना, फेंकना, गोबर से लीपना, झाडू लगाना और दीवालों को साफ करना- ये जीवघात करने वाली छह प्रकार की आरंभ क्रियायें भी आर्यिकायें नहीं करतीं। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में आहार संबन्धी उत्पादन के सोलह दोषों के अन्तर्गत धायकर्म, दूतकर्म आदि कार्य भी इन्हें निषिद्ध हैं।
श्वेताम्बर परंपरा के गच्छाचारपइन्ना नामक प्रकीर्णक ग्रंथ में कहा है- जो आर्यिका गृहस्थी संबन्धी कार्य जैसे- सीना, बुनना, कढ़ाई आदि कार्यों को और अपनी या दूसरे की तेल मालिश आदि कार्य करती हैं वह आर्यिका नहीं हो सकतीं। जिस गच्छ में आर्यिका गृहस्थ संबन्धी जकार, मकार आदि रूप शासन की अवहेलना सूचक शब्द बोलती हैं वह वेश विडम्बनी तथा अपनी आत्मा को चतुर्गति में घुमाने वाली हैं। आहारार्थ गमन विधि
आहारार्थ अर्थात् भिक्षा कार्य के लिए वे आर्यिकायें तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में स्थविरा (वृद्धा) आर्यिका के साथ मिलकर उनका अनुगमन करती हुई परस्पर एक दूसरे के रक्षण (संभाल) का भाव रखती हुई ईर्या समितिपूर्वक आहारार्थ निकलती हैं।" देव-वंदना आदि कार्यों के लिए भी उपर्युक्त विधि से गमन करना चाहिए। आर्यिकायें दिन में एक बार सविधि बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं। गच्छाचार पइन्ना में कहा है- कार्यवश लघु आर्या मुख्य आर्या के पीछे रहकर अर्थात् स्थविरा के पीछे बैठकर श्रमण प्रमुख के साथ सहज, सरल और निर्विकार वाक्यों द्वारा मृदु वचन बोले तो वही वास्तविक गच्छ कहलाता है। स्वाध्याय संबन्धी विधान
मुनि और आर्यिका आदि सभी के लिए स्वाध्याय आवश्यक होता है। बट्टेकर स्वामी ने स्वाध्याय के विषय में आर्यिकाओं के लिए लिखा है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वधर, इनके द्वारा कथित सूत्रग्रंथ, अंगग्रंथ तथा पूर्वग्रंथ, इन सबका