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अनगार
इस ग्रंथके अध्ययन करनेवालोंकी आत्मामें व्यक्त स्वसंवेदनके विषय हो ।
. इस प्रकार सिद्ध भगवान्की स्तुतिका, पदोंकी अपेक्षासे, अर्थ किया गया है । क्योंकि अवयवोंके अर्थका परिज्ञान हुए विना समुदायका अर्थ समझमें नहीं आसकता । अत एव उक्त सब कथनका तात्पर्य समुदायरूपस भी यहां बता देते हैं। वह इस प्रकार है कि जो भव्य, चाहे वे अनादिमिथ्यादृष्टि हो चाहे सादिमिथ्यादृष्टि, किंतु, अंतरंग और बाह्य कारणोंके बलसे सम्यग्दर्शनका लाभ करनेपर समस्त परीषहों व उपसगाके जीतनेकी क्षमता प्राप्त होनेसे सर्व परिग्रहका त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतके अभ्यासमें रत रहते हुए समस्त इन्द्रियों तथा मनका अपने विषयोंसे निराध कर और उस प्रकारका अभ्यास करलेनेपर स्वयं अपनी शुद्धात्मामें शुद्ध निजात्मस्वरूपका ध्यान कर; यहांतक कि उसमें भी तृष्णारहित हो, समस्त घाति कौको नष्ट कर स्वाभाविक और निश्चल चैतन्यसे युक्त-सकल परमात्म-अवस्थाको प्राप्त होजाते हैं; और फिर क्रमसे अघातिकौको भी दूर कर लोकके अंतमें स्थित हो फेवलसम्यक्त्व केवलज्ञान केवलदर्शन और सिद्धत्वसे सदा प्रकाशमान रहते हैं-विकल परमात्म अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं --वे भगवान् सिद्धपरमष्ठी मुझमें नोआगमभावरूपसे मेरी आत्माको ही प्रकाशित करें।
देखा जाता है कि अर्हतादिकके गुणों में अनुराग रखनवाले तथा विचारपूर्वक कार्य करनेवाले सभी पूर्वाचार्योंने अपनेलिये ज्ञानदानके अंतरायको और श्रोताओंकेलिये ज्ञानलाभके अंतरायको दूर करनेकी इच्छासे शुभ परिणामों के द्वारा अशुभ कर्मप्रकृतियोंके रसके प्रकर्षको निर्मल नष्ट कर अभीष्ट अर्थकी सिद्धिकेलिये अपने अपने शास्त्रकी आदिमें इच्छानुसार अर्हतादिक समस्त उपास्योंकी ही स्तुति की है । अत एव इस ग्रंथकी आदि
अध्याय
* इस पधर्म ग्रंथकर्त्ताने केवल सिद्ध भगवान्के गुणों की स्तुति ही नहीं की है किंतु अपने द्वारा प्राणिमात्रके अंतिम साध्य और उनकी सिद्धिके उपाय तथा उपायके क्रमका भी वर्ण वरदिया है। तथा चतादिया है कि जिस क्रमके अनुसार और जिस उपायसे वह साध्य सिद्ध हो सकता है उसका इस ग्रंथमें हम वर्णन करेंगे ।