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रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुयदु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।। इति ।
अनगार
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र, आत्माको छोड कर किसी अन्य द्रव्यमें नहीं रहते अतएव रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्षका कारण है ।
इस निश्चय मोक्षमागरूप ध्यानके बलसे उक्त भव्य समस्त कर्मोंको निर्मूल करदेता है। मिथ्यादर्शनादिसे परतन्त्र हुआ आत्मा अपने साथ जिस चीजको बांधता है उसको अथवा परतन्त्रताके निमित्त और आत्मप्रदेशोंके परिस्पदरूप ज्ञानावरणादिकको भी कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं -द्रव्यकर्म और भावकर्म । आत्माके साथ बंधनेवाले ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलपिंडको द्रव्यकर्म और उससे होनेवाले आत्मिक भावोंको भावर्कर्म कहते हैं । घाति अघाति अथवा बादर सूक्ष्म इस तरह भी कर्मके दो दो भेद होते हैं। आत्माके अनुजीवी गुणोंके घातनेवालोंको घाति और प्रतिजीवी गुणोंके घातनेवालोंको अघाति कर्म कहते हैं । तथा जो अनुभवमें आसकें उनको बादर और जो अनुभवमें न आसकें उन्हें सूक्ष्म कहते हैं । इन कर्मोको निमल कर वह भव्य सुखप्रधान गुणोंसे सदा प्रकाशमान रहता है। सब गुणोंमें सुखको प्रकृष्ट कहनेका प्रयोजन यह है कि वही सब जीवोंको सबसे अधिक अभीष्ट है । और दूसरे अनंत गुण इस परम आनंदस्वरूप अमृतसे सिक्त रहते हैं। इस प्रकार समस्त कर्मों के क्षयसे सिद्धावस्था प्राप्त होजानेपर यद्यपि सुखादिक अनंत स्वाभाविक गुण प्रकट होजाते हैं, फिर भी आठ कर्मोके अभावकी अपेक्षासे प्रधानतया आठ गुणोंसे वे सदा प्रकाशमान रहते हैं। जिनमें कि-मोहनीयकर्मके क्षयसे परमसम्यक्त्व अथवा सुख, ज्ञानावरपके क्षयसे अनंतज्ञान, दर्शनावरणके क्षयसे अनंतदर्शन, और अन्तरायकर्मके क्षयसे अनंतवीर्य प्रकट होता है । वेदनीयकर्मके क्षयसे अव्याबाध अथवा इंद्रियजनित सुखोंका अभाव, आयुःकर्मके क्षयसे परमसूक्ष्मता अथवा जन्ममरणका विनाश, नामकर्मके क्षयसे परम अवगाहन अथवा अमूर्तत्व, और गोत्रकर्मके क्षयसे अगुरुलघुत्व अथवा दोनो कुलका अभाव होता है । इन गुणोंसे सदा प्रकाशमान रहनेवाले तथा सिद्धि-स्वात्मोपलब्धिको प्राप्त करनेवाले वे सिद्ध परमात्मा मुझ ग्रंथकर्ताकी तथा
अध्याय