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अनगार
अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् ।
तत्पृष्टव्यं तदेष्टव्यं तद् दृष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ इति च । शुद्ध चिदानन्दस्वरूप आत्माका ही वर्णन करना चाहिये, और इस विषयके प्राप्त करनेवालों अथवा अभिज्ञोंसे उसे पूछना चाहिये, और इसीकी इच्छा करनी चाहिये, तथा वैसा ही होना भी चाहिये । जिससे कि तू अज्ञानमय अवस्थाको छोडकर ज्ञानमय अवस्थाको प्राप्त हो ।
महान् ज्ञानमय ज्योति ही एक ऐसी चीज है जो कि अविद्यारूपी अंधकारका भेदन करनेमें अतिदक्ष है। अतएव मुमुक्षुओंको वही देखनी चाहिये । इसीको ज्ञानाराधना कहते हैं। क्योंकि निरंतर समीचीन श्रुत में तत्पर रहनेका ही नाम ज्ञानाराधना है।
इस प्रकार ज्ञानका आराधन करनेवाला पहले संयमको धारण करता है, पछि दूसरा काम करता है। स्पर्शनादिक इन्द्रियों व उनके साथ प्रवर्त्तमान मनको अपने अपने विषयसे रोकनेको संयम कहते हैं । अपने अपने आवरण [ जैसे स्पर्शनेन्द्रियावरण रसनेन्द्रियावरण इत्यादि] कर्मका और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर आत्मा अपनी अपनी योग्यताके अनुसार स्पर्शादि विषयोंको जिनके द्वारा जानता है उनको अक्ष अर्थात् इन्द्रिय कहते हैं। इसके पांच भेद हैं- स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र । इनमें प्रत्येकके दो भेद हैं- एक द्रव्येन्द्रिय, दूसरा भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियके दो भेद हैं-निवृत्ति और उपकरण । इन्द्रियाकार रचनाको निवृत्ति और उसके काममें सहायता करनेवालेको उपकरण कहते हैं। भावेन्द्रियके दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । अपने अपने आवरण कर्मके क्षयोपशमकी प्राप्तिको लब्धि तथा अपने अपने विषयकी तरफ प्रवृत्ति करनेको उपयोग कहते हैं । इसी प्रकार नोइन्द्रियावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर. आत्मा जिसके द्वारा द्रव्यमनकी सहायता से मृत या अमूर्त वस्तुको जानता है और उनके गुणदोषोंके विचार या स्मरणादिरूप उपयोगसे ऊहापोह करता है उसको मन कहते हैं। यह लक्षण भावमनकी अपेक्षासे है । क्योंकि गुणदोषोंका विचार या स्मरणादिरूप उपयोग भावमनका ही कार्य है। इस विषयमें कहा भी है
अध्याय