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अनगार
षयोंमें आसक्त होता है उन विषयोंको और उस आसक्तिको संग कहते हैं । सर्वशः इस शब्दमें सर्व-शब्दसे जो शस्प्रत्यय की गई है वह प्रशंसार्थक है । इससे परिग्रहके त्यागकी प्रशस्तता प्रगट की गई है। क्योंकि जितने भी मोक्षके माननेवाले हैं वे सभी समस्त परिग्रहके त्यागको मोक्षका कारण अवश्य मानते हैं। क्योंकि इसके विना उसकी सिद्धि नहीं हो सकती । इस कथनसे संक्षेपरुचिवाले शिष्योंकी अपेक्षासे यहांपर सम्यक्त्वाराधना तथा चारित्राराधनाका भी वर्णन करादिया गया; ऐसा भी समझलेना चाहिये । क्योंकि दर्शनका ज्ञानके साथ और चारित्रका तपके साथ अविनाभाव है। और इसलिये समस्त परिग्रहके त्यागमें उक्त दोनो आराधनाओंका अंतर्भाव होजाता है। - इस प्रकार उक्त सम्यग्दर्शनका लाभ करनेवाला भव्यात्मा पारग्रहका सर्वशः त्याग करनेपर सिद्धावस्था प्राप्त करनेकी इच्छासे समीचीन श्रुतका अभ्यास करने में निरंतर तत्पर रहता है। सामान्यसे अस्पष्ट तर्कण-ऊहापोहरूप ज्ञानविशेषको श्रुत कहते हैं। जो श्रुत अपनी आत्माके स्वरूपकी तरफ उन्मुख रहा करता है वही प्रशस्त समझा जाता है । इसी प्रशस्त श्रुतके अभ्यासमें उक्त सम्यग्दृष्टी तथा परिग्रहका त्यागी निरंतर रत रहा करता है । श्रुत शब्द श्रु धातुसे बना है। जिसका कि अर्थ सुनना होता है। फिर भी जिस प्रकार सम्यग्दर्शनमें दृश् धातुका श्रद्धान अर्थ किया था उसी प्रकार यहां भी श्रुधातुका ज्ञानविशेष ही अर्थ करना चाहिये। जिसमें श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे ऊहापोह करनेकी शक्ति प्रकट होगई है और निसमें साक्षात् अथवा परंपरासे लगे हुए मतिज्ञान विशेषणने अतिशय उत्पन्न कर दिया है उस आत्माके अस्पष्टतया नाना पदाथोंके प्ररूपण करसकनेवाले ज्ञानरूप परिणामविशेषको श्रुत कहते हैं । कहा भी
अध्याय
“मतिपूर्व शब्दयोजनसहितमूहनं श्रुतमिति तच्छ्रुतम् ।” शव्हके सम्बंधसे होनेवाले मतिपूर्वक तर्कण--विचारको श्रुत कहते हैं । यथा--