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SEARCINEHEN
अनगार
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गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः।
तदभिमुखस्यास्यैवानुप्राही पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः॥ . अर्थात-गुणदोषांके विचार या स्मरणादिरूप आत्माके उपयोगको भावमन, तथा उसकेलिये अभिमुख हुए उसी आत्माको सहायता करनेवाले पुद्गलपिंड को द्रव्यमन कहते हैं । इन उपर्युक्त इन्द्रियों व मनके रोकनेको ही संयम कहते हैं और इसीका नाम तप आराधना है। क्योंकि इन्द्रिय तथा मनके निरोधको ही तप कहते हैं। तथा यही व्यवहारसे मोक्षमार्ग भी है।
इस प्रकार व्यवहारसे मोक्षमार्गका साधन कर सिद्धपदका अभिलाषी ध्यानमें प्रवृत्त होता है। सब विषयोंसे हटाकर एक ही विषयकी तरफ उपयोगके लगानेको ध्यान कहते हैं। उक्त प्रकारका तपस्वी अपनी निर्मल आत्माको ही इस ध्यानका विषय बनाता है । जिससे कि वह अपनी उस निर्मल आत्माके विषयमें भी राग द्वेश. और मोहसे रहित होजाता है। तथा सान्द्र--अत्यंत निविद्ध आनन्दस्वरूप शुद्ध निजात्माका अनुभव होजानेसे वह अत्यंत तृप्त और परम प्रशम तथा तृष्णाराहित्यको प्राप्त होजाता है । यहांतक कि स्वयं ध्येयके विषयमें भी वह तृष्णारहित होजाता है । ऐसा ही कहा भी है --
किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः ।
ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र बिभ्रता ।। इति । अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ? तत्वतः पदाथोंको जान कर तथा श्रद्धान कर उनके विषयमें माध्यस्थ्य -राग द्वेश और मोहसे रहित अवस्थाको धारण करनेवालेकेलिये ये सभी ध्येय हैं। इस प्रकारसे ध्यान करनेवाला द्रव्यकर्म और भावकमसे रहित, तथा स्व और पर पदार्थोंकी ज्ञप्तिरूप, पदार्थोके यथावास्थत स्वरूपसे विपरीत स्वरूपके अभिनिवेश-आग्रह तथा संशय विपर्यय अनध्यवसायसे रहित, परम औदातीन्यस्वरूप, सारांश यह कि अनंत शुद्धज्ञानानंदस्वरूप अपनी आत्माका स्वयं संवेदनरूपसे ध्यान करता है । इस प्रकारके ध्यान करनेको ही निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। कहा भी है --
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अध्याय