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अनगार
इसके लिये आम्नाय ही प्रमाण है। अतः प्रकरणके अनुसार ही उनका अर्थ हुआ करता है । पाठोंमें जो इनके अर्थ लिखे हैं वे केवल दिग्दर्शन करानेकेलिये अथवा उदाहरण मात्र समझने चाहिये ।
पदार्थोंके स्वरूपसे विपरीत स्वरूपका आभनिवेश-आग्रह न करना किंतु पर या अपर सभी वस्तुओंका, जिस स्वरूपमें वे अवस्थित हों उसी स्वरूपके अनुसार उनका, श्रद्धान करना इसको दर्शन कहते हैं। इसके साथ जो सु-शब्द दिया है उसके दो अर्थ होते हैं । एक प्रशंसा; दूसरा पूर्णता । क्योंकि यह दर्शन अपनेसे नीचे के स्थानोंकी अपेक्षा शंकादि दोषोंसे रहित होनेके कारण प्रशस्त, और अपनेसे ऊपरके स्थानोंकी अपेक्षा अधिक निश्चल क्षायिकरूप होनेके कारण संपूर्ण कहा जाता है। सूत्रकार--उमास्वामी महाराजने भी सम्यग्दर्शनका ऐसा ही लक्षण कहा है। यथा-" तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " इसका भी यही अर्थ है कि- आत्माके, ऐसी आत्माके कि जिसके दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम क्षय या क्षयोपशम होजानेसे वह कारणभूत शक्तिविशेष प्रकट होगई है, तत्त्वार्थके श्रद्धानरूप उस परिणामको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जो कि ज्ञानको समीचीन ज्ञान कहानेकेलिये कारण है।
अपने अपने निमित्तके पाते ही आ उपखित होनेवाले उन परीपहों व उपसगाँसे जो आविर्भूत नहीं होतेजीते नहीं जासकते; जिनको कि सहनेकेलिये आगममें उपदेश दिया गया है, किंतु धृति आदि भावनाके बलसे अथवा महान् पराक्रम और वज्रतुल्य शरीरसे युक्त रहनेके कारण जो उन्हें सहते हैं उनको सर्वसह कहते हैं। इस प्रकारके सर्वसह और उक्त सम्यग्दर्शनक धारण करनेवाले ही भव्यात्मा सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करनेकेलिये सङ्ग -परिग्रहके सर्वशः त्यागादि करनेमें प्रवृत्त हो सकते हैं।
संग-परिग्रह बाह्य और आभ्यंतरके मेदसे दो प्रकारका है । इसका सामान्य और विशेष लक्षण आगे कहेंगे । फिर भी निरुक्तिके अनुसार यहांपर इतना अर्थ अवश्य समझलेना चाहिये कि यह जीव अपनी चेष्टा या उपयोगरूप प्रवृत्तिके द्वारा “ मेरा" और "मैं" इस तरहके ममकार और अहंकारसे जिन वि
अध्याय
और विशेष लक्षण ।
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