________________ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि विनय को तप क्यों कहा गया है ? सद्गुरुओं के साथ नम्रतापूर्ण व्यवहार करना यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है / फिर ऐसी क्या विशेषता है जो उसे तप की कोटि में परिगणित किया गया है ? उत्तर में निवेदन है कि विनय शब्द जैन साहित्य में तीन अर्थों में व्यवहृत हना है-- 1. विनय—अनुशासन, 2. विनय—आत्मसंयम-सदाचार, 3. विनय-नम्रता-सद्व्यवहार / उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में जो विनय का विश्लेषण हा है वहाँ विनय अनुशासन के अर्थ में आया है / सद्गुरुओं की आज्ञा का पालन करना, उनकी भावनाओं को लक्ष्य में रखकर कार्य करना, गुरुजन शिष्य के हित के लिए कभी कठोर शब्दों में हित-शिक्षा प्रदान करें, उपालम्भ भी दें तो शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुने और उसका अच्छी तरह से पालन करे। 'फरुसं पि अगुसासणं'१६ 3 अनुशासन चाहे कितना भी तेजतर्रार क्यों न हो, शिष्य सदा यही सोचे कि गुरुजन मेरे हित के लिए यह आदेश दे रहे हैं, इसलिए मुझे गुरुजनों के हितकारी, लाभकारी आदेश का पालन करना चाहिए,१६४ उनके आदेश की अवहेलना करना और अनुशासन पर क्रोध करना, मेरा कर्तव्य' 5 नहीं है / विनय का दूसरा अर्थ आत्मसंयम है। उत्तराध्ययन में 'अप्पा चेव दमेयव्वो'. आत्मा का दमन करना चाहिए; जो अात्मा का दमन करता है, वह सर्वत्र सुखी होता है / विवेकी साधक संयम और तप के द्वारा अपने आप पर नियंत्रण करता है। जो आत्मा विनीत होता है, वह आत्मसंयम कर सकता है, वही व्यक्ति गुरुजनों के अनुशासन को भी मान सकता है, क्योंकि उसके मन में गुरुजनों के प्रति अनन्त आस्था होती है / वह प्रतिपल, प्रतिक्षण यही सोचता है कि गुरुजन जो भी मुझे कहते हैं, वह मेरे हित के लिए है, मेरे सुधार के लिए है / कितना गुरुजनों का मुझ पर स्नेह है कि जिसके कारण वे मुझे शिक्षा प्रदान करते हैं / शिष्य गुरुजनों के समक्ष विनीत मुद्रा में बैठता है, गुरुजनों के समक्ष कम बोलता है या मौन रहता है। गुरुजनों का विनय कर उन्हें सदा प्रसन्न रखता है और ज्ञान-आराधना में लीन रहता है / विनीत व्यक्ति अपने सद्गुणों के कारण आदर का पात्र बनता है। विनय ऐसा वशीकरण मंत्र है जिससे सभी सदगुण खिंचे चले आते हैं। अविनीत व्यक्ति सड़े हए कानों वाली कुतिया सदृश है, जो दर-दर ठोकरें खाती है, अपमानित होती है। लोग उससे घृणा करते हैं। वैसे ही अविनीत व्यक्ति सदा अपमानित होता है। इस तरह विनय के द्वारा आत्मसंयम तथा शील-सदाचार की भी पावन प्रेरणा दी गई है। विनय का तृतीय अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार है / विनीत व्यक्ति गुरुजनों के समक्ष बहुत ही नम्र होकर रहता है। वह उन्हें नमस्कार करता है तथा अञ्जलिबद्ध होकर तथा कुछ झुककर खड़ा रहता है। उसके प्रत्येक व्यवहार में विवेकयुक्त नम्रता रहती है। वह न गुरुओं के प्रासन से बहुत दूर बैठता है, न सटकर बैठता है। वह इस मुद्रा में बैठता है जिसमें अहंकार न झलके / वह गुरुओं की आशातना नहीं करता / इस प्रकार वह नम्रतापूर्ण सद्व्यवहार करता है। 193. उत्तराध्ययन 1129 194, उत्तराध्ययन 1127 195. उत्तराध्ययन 169 [ 50-] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org