________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [195 [192] (चखने के बाद प्रतीत हो कि-) यह जल बहुत ही खट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ है, तो देती हुई उस महिला को मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का धोवन-जल मैं ग्रहण नहीं कर सकता / / 110 // [193] यदि वह धोक्त-पानी अपनी अनिच्छा से अथवा अन्यमनस्कता (असावधानी) से ग्रहण कर लिया गया हो तो, न तो उसे स्वयं पीए और न ही किसी अन्य साधु को पीने को दे / / 111 / / [194] वह (उस धोवन को लेकर) एकान्त में जाए, वहाँ अचित्त भूमि को देख (प्रतिलेखन) करके यतनापूर्वक उसे प्रतिष्ठापित कर दे (परिठा दे) ! परिष्ठापन करने के पश्चात् स्थान में प्राकर वह (मुनि) प्रतिक्रमण करे / / 112 / / विवेचन-जल के अग्रहण, ग्रहण और परिष्ठापन की विधि-मुनि को प्यास बुझाने के लिए अचित्त पानी की आवश्यकता होती है। सचित्त पानी वह ले नहीं सकता। प्राचारांगसूत्र में 21 प्रकार का प्रासुक और एषणीय पान साधु-साध्वियों के लिए ग्राह्य बताया है, किन्तु कोई गृहस्थ दाता चावल, आटे या गुड़ आदि के घड़े का तत्काल धोया हुआ पानी साधु-साध्वी को देना चाहे तो उसे तब तक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श में परिवर्तन तथा शस्त्रपरिणत न जान कर सचित्त समझ कर न ले। किन्तु अपनी बुद्धि एवं ऊहापोह एवं पूछताछ करके देख-सुन कर यह निश्चय कर ले कि यह धोवन काफी देर का धोया हुआ है तब वह उसे ग्रहण कर ले / किन्तु कदाचित् वह धोवन अत्यन्त खट्टा, बदबूदार एवं प्यास बुझाने में अनुपयोगी हो और असावधानी से, अनिच्छा से ले लिया गया हो, तो न स्वयं पीए और न दूसरों को पीने को दे / किन्तु एकान्त में विधिपूर्वक उसका परिष्ठापन कर दे। प्राचारांग में वर्णित धोवन-प्राम, अंबाडग, कपित्थ (कैथ), बिजौरे आदि का वर्णादि से परिणत धोवन लेने का आचारांग में तथा मूलाचार में विधान है।८० . 'उच्चावयं' आदि कठिन शब्दों के अर्थ उच्चावयं : उच्चावच : शब्दशः अर्थ है-ऊँच और नीच / जलप्रकरण के सन्दर्भ में इनका अर्थ होगा-अच्छा (श्रेष्ठ) और बुरा (निकृष्ट)। अर्थात्-. जिसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अच्छे (सुन्दर) हों, वह उच्च और जिसके वर्णादि श्रेष्ठ न हों, वह अवचपान कहलाता है / जैसे-द्राक्षा का धोवन उच्च जल है और जो अत्यन्त खट्टा, दुर्गन्धयुक्त, अति स्निग्धतायुक्त तथा वर्ण से भी असुन्दर हो, वह अवच है, जो साधु के लिए अग्राह्य है / उच्चावच का अर्थ 'नाना प्रकार' भी होता है / वार-धोवणं-'वार' घड़े को कहते हैं। गुड़, राब आदि से लिप्त 80. (क) आचारांगसूत्र (ख) तिल-तंडुल-उसणोदय-चणोदय-तुसोदय-अविद्धत्थं / अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेण्हिज्जा // ---मूलाचार (बट्टकेर प्राचार्यकृत), गा. 473 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org