________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [211 विवेचन-भिक्षाटन के समय क्षेत्रादि-विवेक-प्रस्तुत 7 सूत्रगाथाओं (220 से 226 तक) में भिक्षाचर्या करते समय गमनपथ का, खड़े रहने, बैठने, बोलने तथा गृहप्रवेश करने का नैतिक एवं अहिंसक दृष्टि से विवेक बताया गया है / ऐसे मार्ग से होकर न जाए-भिक्षार्थ गमन करते समय रास्ते में कहीं चुगा-पानी करने या चारा-दाना करने में प्रवृत्त नाना प्रकार के छोटे-मोटे उच्च-नीच जातीय पक्षी या पशु एकत्रित हों, उस रास्ते से साधु-साध्वी को नहीं जाना चाहिए, क्योंकि उस रास्ते से जाने से साधु या साध्वी को देख कर वे भय से त्रस्त होकर भोजन करना बंद कर सकते हैं, उड़ सकते हैं, या भागदौड़ कर सकते हैं / इससे उनके खाने-पीने में अन्तराय, वायुकाय की अयतना आदि दोषों की सम्भावना है / अतः साधु को उन पशु-पक्षियों को देख कर दूसरे मार्ग से यतनापूर्वक गमन करना चाहिए / अहिंसा महाव्रती साधु किसी भी जीव को भय या त्रास हो ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं करता।२ / गोचरी के समय बैठने और कथा करने का निषेध-भिक्षाचर्याकाल में गृहस्थ प्रादि के घर में बैठना कालोचित चर्या नहीं, ब्रह्मचर्य एवं अनासक्ति की दृष्टि से भी उचित नहीं है / बैठना तो दूर रहा, खड़े रहकर भी धर्मकथा करना या गप्पें मारना उपर्युक्त कारणों से उचित नहीं है / वृत्तिकार कहते हैं---वह खड़े-खड़े एक प्रश्नोत्तर (मंगलपाठ सुनाना आदि) कर सकता है / विस्तृत कथाप्रबन्ध करने से संयम के उपघात की एवं एषणासमिति की विराधना की सम्भावना है / 3 गृहस्थों का अतिपरिचय भी संयमी जीवन के लिए हानिकारक है। अर्गला आदि को पकड़ कर खड़े रहने में दोष--अर्गला अादि को पकड़ कर खड़ा रहने में दोष यह है कि कदाचित् वे मजबूती से बंधे हुए न हों तो अचानक टूट कर या खुल कर मुनि पर गिर सकते हैं या मुनि नीचे गिर सकता है। इससे संयमविराधना और आत्मविराधना ये दोनों दोष संभव हैं / कभी-कभी लोगों को असभ्यता भी मालूम होती है / 14 श्रमणब्राह्मणादि याचकों को हटा कर या लांघ कर गृहप्रवेश में दोष—यदि गृहस्थ के द्वार पर भिक्षाचर खड़े हों तो उन्हें हटा कर या लांघ कर जाने में मुख्यतया तीन दोष हैं-(१) गृहस्थ को या याचक को उक्त साधु के प्रति अप्रीति या द्वेषभावना हो सकती है, (2) कदाचित् भक्त 12. (क) दशवै. (संतबालजी) पृ. 63 (ख) 'तत्संत्रासनेनान्त रायाधिकरणादिदोषात् / ' --हारि. वृत्ति, पत्र 184 13. गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थइ-घरे वा देवकुले वा, सभाए वा पवाए वा एवमादि / जहा य न निसिएज्जा, तहा सियो वि धम्मकहा-वादकहा-विम्गहकहादि जो पबंधिज्जा-नाम ण कहेज्जइ। णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा / 14. (क) इमे दोसा कयाति दुब्बद्ध पडेज्जा, पडतस्स य संजमविराहणा प्रायविराहणा वा होज्जत्ति / -~-जि. चू., पृ. 196 (ख) 'लाघव-विराधनादोषात् / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org