________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [261 किया जाने वाला सुगन्धित द्रव्य, (3) चूर्ण काषाय / लोद्ध-लोध्र : दो अर्थ-(१) लोध्र पुष्प का पराग (गन्ध द्रव्य) / (2) मुख पर कान्ति लाने व पसीने को सुखाने के लिए प्रयोग किया जाने वाला पठानी लोध वृक्ष की छाल का चूर्ण / पउमंगाणि-पद्मक : दो अर्थ-(१) पद्मकेसर, (2) कुकुमयुक्त विशेष सुगन्धित द्रव्य / नगिणस्स वा मुण्डस्स०-वृत्तिकार के अनुसार नग्न शब्द के दो लक्षण दिये गए हैं--(१) निरुपचरित नग्न और (2) औपचारिक नग्न / जो निर्वस्त्र रहते हैं, वस्त्र या अन्य किसी भी उपकरण से शरीर को प्रावृत नहीं करते, वे निरुपचरित नग्न होते हैं। वे जिनकल्पिक होते हैं। दूसरे स्थविरकल्पिक मुनि जो वस्त्र पहनते हैं, वे वस्त्र प्रमाणोपेत तथा अल्पमूल्य के होते हैं। इसलिए उन्हें कुचेलवान् या औपचारिक नग्न कहते हैं / मुण्डस्स-मुण्डित-मस्तक मुण्डित होने से साधु रूपवान् नहीं लगता, फिर शरीर को सजाने से क्या मतलब ! दीहरोमनहसिणो : दीर्घरोमनखवान्–कांख आदि में लम्बे-लम्बे रोम वाले तथा हाथ में बढ़े हुए नख वाले या दीर्घरोमनखात्रीय-जिनके रोम तथा नख के कोण (काटे न जा सकने से) दीर्घ हैं / अथवा प्रस्तुत गाथा जिनकल्प मुनि को लेकर अंकित है, ऐसा व्याख्याकारों का मत है क्योंकि सर्वथा नग्न जिनकल्पी मुनि रहते हैं, दीर्घ नख तथा रोम रखने का व्यवहार भी जिनकल्पिकों का है। स्थविरकल्पिक के नख तो प्रमाणोपेत ही होते हैं, ताकि अन्धकार आदि के समय दूसरे साधुओं को न लग सकें / 54 प्राचारनिष्ठा निर्मलता एवं निर्मोहता आदि का सुफल 330. खर्वेति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अज्जवे गुणे। धुगंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करेंति // 67 // 331. समोवसंता अममा अकिंचणा सविज्ज-विज्जाणुगया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा सिद्धि विमाणाई उति ताइणो // 68 // -त्ति बे मि॥ छ8 धम्मऽत्थकामज्शयणं समत्तं // 6 // 53. (क) सिणाणं सामयिणं उवण्हाणं / अधवा गंधवट्टयो। कवकं पहाणसंजोगो वा / लोद्ध' कसायादि प्रपंडुरच्छदिकरणत्थं दिज्जति / --अ. चू., पृ. 156 (ख) स्नानं पूर्वोक्तम् , लोध्र-गन्धद्रव्यम् / पद्मकानि-कुकुमकेसराणि / -हारि. वृत्ति, पत्र 206 (ग) स्नानमङ्गप्रक्षालनं चूर्णम् / —प्रव. प्र. 43 अव. 54. (क) 'नग्नस्य वापि'-कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रम् / दीर्घ रोमनखवतः–दीर्घरोमवतः कक्षादिषु, दीर्धनखवतो हस्तादी, जिनकल्पिकस्य / इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता नखा भवन्ति, यथाऽन्यसाधना शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति / -हारि० वृत्ति, पत्र 206 दीहाणि रोमाणि कक्खादिसु जस्स सो दीहरोमो / पाश्री कोटी, जहाणं आश्रीयो नहस्सीयो / णहा जदि वि पडिणहादीहिं कपिज्जति, तहवि असंठवितानो णहथ राम्रो दोहामो भवति / दीहसदो पत्तेयं भवति / दीहाणि रोमाणि, णहस्सीयो य जस्स सो दोहरोमणहस्सी तस्स / -अगस्त्यचूणि, पृ. 157 (ग) दशव०, (प्राचार्य श्री पात्मारामजी म.), पृ. 378-379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org