________________ नवमं अज्झयणं : विणय-समाही नौवाँ अध्ययन : विनय-समाधि बीनो उद्दे सो : द्वितीय उद्देशक वृक्ष की उपमा से विनय के माहात्म्य और फल का निरूपण 469. मूलामो खंधप्पभवो दुमस्स खंधाओ पच्छा समुति साहा। साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तनो से पुप्फ च फलं रसो य // 1 // 470. एवं धम्मस्स विणो मूलं, परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्धं निस्सेसं चाभिगच्छइ // 2 // [469-470] वृक्ष के मूल से (सर्वप्रथम) स्कन्ध उत्पन्न होता है, तत्पश्चात् स्कन्ध से शाखाएँ उगती हैं और शाखाओं में से प्रशाखाएँ निकलती हैं / तदनन्तर उस (वृक्ष) के पत्र, पुष्प, (फिर) फल और रस उत्पन्न होता है / / 1 / / इसी प्रकार धर्म (-रूप वृक्ष) का मूल विनय है, और उस (धर्मरूपी वृक्ष) का परम (अन्तिम अथवा उत्कृष्ट रसयुक्त फल) मोक्ष है / उस (विनय) के द्वारा (विनयी श्रमण) कीर्ति, श्रुत और निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्त करता है / / 2 / / विवेचन-धर्म के मूल, अन्तिम फल तथा मध्यवर्ती फल सम्बन्धी अवस्थाएँ-- प्रस्तुत गाथाद्वय में वृक्ष की उपमा द्वारा विनय का माहात्म्य व्यक्त करते हुए उसे उपमा में धर्म का मूल बताकर उसकी परम और अपरम अवस्थाओं का फल के सन्दर्भ में उल्लेख किया गया है / उपमेय में केवल मूल और परम का उल्लेख है। जिस प्रकार वृक्ष की अपरम अवस्थाएँ हैं-स्कन्ध, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल, रस आदि, उसी प्रकार धर्म का परम फल मोक्ष है, जो विनय से प्राप्त होता है और अपरम फल है-देवलोक-प्राप्ति, सुकुल में जन्म, तथा क्षीरास्रव, मधुरास्रव आदि लब्धियों का प्राप्त होना इत्यादि।' सिग्घ-सम्घं-दो रूप : दो विशेषार्थ-(१) श्लाघ्य-श्रुत का विशेषण-प्रशंसनीय श्रुत (शास्त्र-ज्ञान) को (2) श्लाघा-प्रशंसा / 1. (क) "अपरमाणि उ खंधो साहा-पत्त-पुप्फ-फलाणि त्ति, एवं धम्मस्स परमो मोक्खो, अपरमाणि उ देवलोग सुकुलपच्चायायादीणि खीरासबमधुरासवादीणि त्ति / " -जिन, चूणि, पृ. 209 (ख) दशवै. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) 2. (क) सुतं च साधं-साघणीयमधिगच्छति / --अगस्त्यचणि (ख) दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी म.), 1.866 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org