________________ [दशकालिकसूत्र मनुष्यों से वह असह्य तिरस्कार पाता है, अवन्दनीय हो जाता है, गलितकाय कुत्ते की तरह दुरदुराया जाता है। जिस तरह स्थानच्युत इन्द्रजित देवो अपने पूर्वकालीन अखण्ड गौरव, देवियों द्वारा सेवाभक्ति, वन्दन प्रादि सुखों का स्मरण कर करके शोक करती है; उसी तरह संयमस्थान से च्युता साधु भी अपने भूतपूर्व गौरव, पद, स्थान आदि को बार-बार याद करके मन में पश्चात्ताप करता है। (4) अपूज्य होने के कारण-जब साधु अपने चारित्रधर्म में स्थिर रहता है, तब भावक जन भावभक्तिपूर्वक भोजन, वस्त्र आदि से उसको पूजा करते हैं, उसके चरण पूजते हैं, उसे प्रतिष्ठा देते हैं, किन्तु जब वह चारित्रधर्म को छोड़ कर गहस्थ बन जाता है, तब सब लोगों के लिए अपूज्य हो जाता है। उसका कहीं भी भोजनवस्त्रादि से सत्कार नहीं होता / तब जिस प्रकार राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर राजा को कोई नहीं पूछता, वह अपने पूर्व गौरव को याद करके भारी पश्चात्ताप करता है, उसी प्रकार चारित्रभ्रष्ट व्यक्ति भी अपनी पूर्वगौरवदशा का स्मरण करके मन में भरता रहता है। (5) अमान्य होने के कारण-अपने शील और धर्म में जब साधु स्थिरचित्त होता है, तब तो वह अभ्युत्थान एवं प्राज्ञापालन आदि के रूप में सर्वमान्य होता है, किन्तु जब साधुधर्म से भ्रष्ट होकर गृहस्थ बन जाता है, तब उन्हों सत्कार करने वाले लोगों द्वारा वह अमान्य हो जाता है, जिस प्रकार राजा के आदेश से किसी क्षुद्र गाँव में नजरबंद किया हुप्रा नगर सेठ पश्चात्ताप करता है कि हाय ! कहाँ तो नगर में सब लोग मेरी आज्ञा मानते थे, मैं सम्मानित होता था कहाँ यह क्षद्र गाँव, जहाँ कोई भी मुझे पूछता तक नहीं ?' इसी प्रकार शोलधर्मभ्रष्ट साधु भो अमाननीय हो जाने के कारण शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से पीड़ित होता रहता है। (6) बुढ़ापा पाने पर-सरस भोजन के लोभ से मछली धोवरों द्वारा पानी में डाले हुए लोहे के कांटे को निगल जाती है। जब वह कांटा गले में अटक जाता है, तब वह पछताती है / इसी प्रकार संयम से पतित एवं गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट व्यक्ति भी जवानी बीत जाने पर जब बुढ़ापा झांकने लगता है तब पश्चात्ताप करता है, क्योंकि जिस प्रकार मछलो के गले में अटका हुआ कांटा (बडिश) न तो गले के नीचे उतरता है और न गले से बाहर निकल सकता है, इसी प्रकार उत्प्रव्रजित भी न तो बुढ़ापे में भोगों को भोग सकता है और न उनसे मुक्त हो सकता है, क्योंकि वह स्त्रीपुत्रादि के जाल में फंस जाता है। (7) कुकुटुम्ब को दुश्चिन्ताओं से घिरने पर-संयम से पतित साधु को जब गृहवास में अनुकूल परिवार नहीं मिलता है, तब विभिन्न प्रतिकूल दुश्चिन्तामों के कारण उसका हृदय दग्ध होने लगता है। फिर जिस प्रकार स्पर्शविषय का लोभ देकर बन्धनों से बांधा हुआ हाथो घोर दुःख 5. दशवकालिक (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) पृ. 1013 6. वही, पृ. 1015 7. वही, पृ. 1.16 8. वही, पृ. 1017 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org