________________ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण] [437 भागवत ने कहा-'भगवन् ! बड़ी कृपा होगी, यदि आप मेरे यहाँ चौमासा करें। आपकी सेवा यह दास सहर्ष करेगा। मेरा अहोभाग्य है कि आप जैसे त्यागी पुरुषों का मेरे यहाँ निवास होगा / परन्तु मेरी एक शर्त आपको स्वीकार करनी होगी। वह यह है कि आप मेरे यहाँ प्रसन्नता से और निःस्पृहभाव से रहें। मेरे घर और परिवार से सम्बन्धित कोई भी कार्य प्राप नहीं करेंगे / चाहे मेरा कोई भी कार्य बनता या बिगड़ता हो, आपको उसमें हस्तक्षेप नहीं करना होगा। मुझ पर आप किसी प्रकार का ममत्वभाव नहीं रखें।' परिव्राजक ने भागवत की शर्त स्वीकार करते हुए कहा-- ठीक है, मैं ऐसा ही करूगा / मुझे भला, तुम्हारे कार्यों में हस्तक्षेप करके अपना संन्यासीपन खोने से क्या लाभ ! मैं निःस्पृह, निर्लेप और निःसंग रहूँगा। संन्यासी ठहर गए। भागवत उनकी प्रशनवसन आदि से खब सेवा-भक्ति करने लगा। एक दिन रात्रि के समय भागवत के घर में चोर घुसे और उसका घोड़ा चुरा ले गए। प्रभात का समय हो जाने से चोरों ने उस घोड़े को नगर के बाहर तालाब पर एक पेड़ से बांध दिया, संन्यासीजी को पता लग गया। वे उस दिन बहुत जल्दी उठ गए और सोधे उसी तालाब पर स्नान करने पहुंच गए। वहाँ चोर उस घोड़े को बांध रहे थे। संन्यासीजी चोरों की करतूत समझ गए। फिर उन्हें भागवत की शर्त याद आ गई / सोचा-शर्त के अनुसार तो मुझे भागवत को कुछ भी नहीं कहना चाहिए, परन्तु हृदय मानता नहीं है / संन्यासीजी से रहा न गया। वे शीघ्रता से भागवत के पास पहुँचे और प्रतिज्ञा-भंग से बचते हुए बोले-मेरी बड़ी भूल हुई / मैं अपना वस्त्र तालाब पर भूल पाया। भागवत ने अपने नौकर को भेजा। नौकर ने भागवत के घोड़े को वहाँ बंधा देखा तो संन्यासीजी का वस्त्र लेकर शीघ्र पहुँचा। भागवत से घोड़े के विषय में कहा। भागवत सारी बात समझ गया और संन्यासीजी से बोला--महात्मन् ! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है। अब मुझ से आपकी सेवा नहीं हो सकती, क्योंकि जिस सेवा-दान का फल बहुत ही स्वल्प मिले, वह मुझे पसंद नहीं। किसी से सेवा की अपेक्षा रख कर सेवा करने का फल अत्यल्प होता है। बेचारे संन्यासीजी अपना दण्ड-कमण्डलु उठा कर चल दिये। इसीलिए जिस दाता में सेवा प्रादि के रूप में दान का प्रतिफल पाने की इच्छा नहीं होती, जो निःस्पृहभाव से सेवा या दान करता है, ऐसा मुधादायी दुर्लभ है। -~-दशव. अ. 5 गा. 213 (प्राचार्य श्री प्रात्मा.) (12) मुधाजीवी भी दुर्लभ है ! (मुहाजीवी वि दुल्लहा....) एक राजा अत्यन्त धर्मात्मा और प्रजाप्रिय था। एक दिन उसने विचार किया कि यों तो सभी धर्म वाले अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और उसी के स्वीकार से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं। अतः धर्मगुरु से धर्म की परीक्षा करना चाहिए, क्योंकि धर्म के प्रवर्तक धर्मगुरु ही होते हैं / सच्चा धर्मगुरु वही है जो किसी प्रकार की आशा-आकांक्षा के नि:स्वार्थभाव से, जैसा भी जो भी आहार-पानी मिला, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करके सन्तुष्ट रहता है। उसी का धर्म सर्वश्रेष्ठ होगा / यह सोच कर राजा ने अपने सेवकों द्वारा घोषणा कराई कि मेरे देश में जितने भी भिक्षुक हैं, उन सबको मैं मोदक दान करना चाहता हूँ। सभी राजमहल के प्रांगण में पधारें / उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org